Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ततो धर्मप्रसादेन श्रीपालकांतया समम्
संस्थितस्सुख सम्पन्नो धर्मकार्येषुतत्परः ॥१७६।। अन्वयार्थ-(ततः) इस प्रकार (धर्मप्रसादेन) धर्म के प्रभाव से (धर्मकार्येषु ) धार्मिक कार्यों में (तत्परः) तत्पर हुआ (श्रीपाल:) थोपालराजा (कान्तया) अपनी पत्नी के साथ (समम्) साथ (सुखसमापन्नः) सुख पूर्वक (संस्थितः) रहने लगा।
मावार्थ · धर्म प्रभावना से प्रख्यात और ससुर से सम्मान्य होकर श्रीपाल आनन्द से अपनी प्राणा मासुम्दती रा. प. स. होरया । अपने धावकोचित पूजा दानादि कर्मों को करते हुए सुख से स्थिल हो गये ।।१७६ ।।
इति शुभ परिपाकाद् राजपुत्री सुरूपाम्, नृपज-विभयवस्त्रं चाऽपि दु-धिनाशम् । अनुभवति सुखौख्यं ह्यषमत्वेति दक्षः । कुरुत परं धर्म यत्नतस्वार्थ सिद्धये ॥१८०।।
अन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार (शुभ) पुण्य (परिपाकात्) उदय से (मुरूपाम ) सुन्दर (राजपुत्रोम) राजकन्या, (नपज-विभव) राजा से प्राप्त वैभव (वस्त्रम) वस्त्र (च) और (दुर्व्याधिनाशम) भयङ्कर असाध्य रोग की निर्वत्ति (अपि) भी प्राप्त कर (एषः) यह श्रीपाल (सुसौख्यम् ) उत्तम सुख को (अनुभवति) अनुभव करता है (इति) इस प्रकार (मत्त्वा) मानकर (दक्षः) चतुर पुरुष (स्वार्थ) अपने कार्य को (सिद्धये) सिद्धि के लिए (यत्नतः) प्रयत्नपूर्वक (परम ) उत्तम (धर्मम ) धर्म को (कुरुज) करें।
भावार्थ - आचार्य श्री समस्त भन्यात्मानों को धर्मार्जन की प्रेरणा दे रहे हैं। श्रीपाल ने सद्धर्म के प्रभाव से सर्वाङ्ग मुन्दरी, जिनागमवेत्ता, परमसती राजकुमारी को पत्नी रूप में प्राप्त किया । उस सती के सहयोग से निििध हुा । संसार प्रसिद्धि प्राप्त की। राजसम्मान पाया । राजा समान वैभव प्राप्त किया। जिनधर्म की प्रभावना की । अनेक प्रकार इन्द्रिय-विषय भोगों को पाकर मुख में रहने लगे । आचार्य श्री कहते हैं अहो भव्यजन हो! धर्म की महिमा अपार है। उभयलोक सिरिख का यही एकमात्र साधन है, आप श्रीपाल के चरित्र को आदर्श बनाकर धर्मा में अनुरक्त होबे । यही सुख का हेतू है ।।१०।।
इति श्रीजिनसिद्धचनविलसत् पूजा प्रभावेण वै। भुक्त्वा कामसमाकृति प्रगनिधिः श्रीपालनामानृपः । नानाभोगविलास सौख्यनिलयः कीाजगद्व्यापकम् । तत्रस्थोऽपि परोपकारनिरतस्तस्थी समं कान्तया ॥११॥