Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद |
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श्रन्वयार्थ ( तां ) उसको ( श्वधू ) सास ( मत्वा ) जानकर ( मदनादिसुन्दरी) मैंनासुन्दरी ( सुभक्तितः ) अत्यन्तभक्ति से (विनतमस्तका) मस्तक झुकाकर ( तस्या ) उसके ( चरणाम्भोजी) युगल चरण कमलों में ( ननाम ) नमस्कार किया ।
भावार्थ -- घर पधारी अपनी सास को ज्ञातकर अत्यन्तभक्ति से मदनसुन्दरी ने उसका सम्मान किया । विनयावनत हो हाथ जोडे । उसके युगल चरणों में नमस्कार किया ।
।। १४३ ।।
सा च तदाप्राह तदात्वं भो वधूत्तमे । श्रीपालनृपतेरस्य, पट्टदेवी भवेत्यलम् ॥ १४४ ॥
अन्वयार्थ - (सा) उस सास ने भी ( तूर्णम्) शीघ्र हो ( तदा ) उस समय ( मुदा ) आनन्द से ( प्राह ) कहा - आशीर्वाद दिया ( भो वधूत्तमे) हे उत्तम बधु ! ( त्वं ) तुम (अस्य) इस ( श्रीपालनृपतेः ) श्रीपालराजा की ( पट्टदेवी ) पटरानी ( भवेत् ) बनो (च) और (अलम् ) अधिक क्या ?
भावार्थ -- मैंनासुन्दरी के नमस्कार करने पर सास ने भी अत्यन्त पुलकित हो अपनी सौभाग्यवती बहूरानी को आशीर्वाद दिया । वह कहने लगी हे शुभे ! हे नारी शिरोमणि ! तुम इस मेरे पुत्र भूपति श्रीपाल की अग्रमहिषी बनो। पटरानी पद प्राप्त करो। सदा सौभा ग्यवती रहो। अधिक क्या ? चक्रवर्ती की पटरानी सदृश पति का साथ सुखभोग करो ।। १४४ ।।
ततस्साऽपि प्रसन्नात्मा वधूस्तद्धर्मवत्सला । स्नानभोजनसद्वस्त्रताम्बूल विनयादिकम् ।। १४५ ॥
अन्वयार्थ - ( ततः ) इसके बाद (सा) वह मैना ( सद्धर्मवत्सला ) जिनधर्मपरायणा
( बधुः ) बहू ने (अपि) भी ( प्रसन्नात्मा ) आनन्द से ( स्नान ) स्नान (भोजन) भोजन ( सदस्य ) उत्तम वस्त्र ( ताम्बूल ) पान सुपारी (विनयादिकम) मान सम्मानादि
प्राकक्रियां कृत्वा सज्जनानन्ददायिनीम् ।
पुननंत्या च तां प्राह भी मातः ! कृपया वद ॥ १४६ ॥
अन्वयार्थ - ( सज्जनानन्द) सत्पुरुषों को ग्रानन्द ( दायिनीम् ) देनेवाली ( प्राचूर्णक) अतिथि सत्कार योग्य ( त्रियाम्) क्रिया को ( कृत्वा) करके (च) और (पुनः) फिर ( नत्वा ) नमस्कार करके (ताम् ) उस सास से ( प्राह ) बोली (भो मातः) हे माते ! ( कृपया ) कृपाकर (वेद) कहिए | क्या ---
कस्मादत्र समायाता भवति भुवनोत्तमा ।
कोशोऽयं च सत्कान्तः किं गोत्रं मे समादिश ।। १४७ ।।