Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
१९०
[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
स्वयं स्नात्वा पवित्रात्मा धौतवस्त्रसमन्विता । जिनेन्द्रभवनेरम्ये कृत्वा शोभां मनः प्रियाम् ॥१२३॥
__ अन्वयार्थ--बह पतिव्रता (स्वयं) स्वयं (पवित्रात्मा) पावन भावनायुत (स्नात्वा) स्नान करके (धीतवस्त्रसमन्विता) सफेद शुद्धवस्त्र धारण कर (रम्ये) सुन्दर (जिनेन्द्र भवने) जिनालय में (मनःप्रियाम्) मनोरञ्जक (शोभाम्) शोभा (कृत्वा) करके पुनः
विशिष्टाष्ट महाद्रव्यैर्जलगन्धाक्षतादिभिः । पूजामेकां शुभां चके सिद्धचक्रस्यशर्मदाम् ॥१२४।।
अन्वयार्थ--(जलगन्धाक्षतादिभिः) जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप धूप फलादि (विशिष्ट) विशेष (अष्ट) पाठ (महाद्रव्यः) उत्तम द्रव्यों से (शुभाम् ) शुभ (शर्मदाम्) शान्तिदायक (सिद्धचक्रस्य) सिद्धसमूह की (एकाम् ) प्रथम दिवस की (पूजाम्) पूजा (चक्र) को ।
भावार्थ-याचार्य थी ने सिद्धचक्रगुजा विधान को सम्पूर्ण विधि जिस प्रकार उपदिष्ट की उसे मदनसुन्दरी ने ध्यान पूर्वक श्रवण किया तथा इस सुख शान्ति विधायक सिद्धचऋविधान विधि को मैंनासुन्दरी ने अपने पति के साथ सुना । परमभक्ति से वह व्रत अपने पतिदेव को दिलवाया तथा स्वयं ने भी यही व्रत लिया । हर्षातिरेक से गद्गद् दोनों दम्पत्ति व्रत लेकर प्रसन्न हुए 1 महाभक्ति से विनयपूर्वक हाथ जोड़, मस्तक भुकाकर नमस्कार किया। परम शुभ भावों से दोनों घर आये । उस महासती शिरोमणि ने पतिभक्ति से सुवर्ण के पत्रे पर सिद्धचक यन्त्र को तैयार करवाया। महायन्त्र तैयार होने पर उस पतिव्रता ने अन्य प्रष्ट द्रब्यों को समन्वित किया । सभी सामग्री पूर्णशुद्ध, उज्वल और मनोहर थी। उस शोभनीय सामग्री को देखकर सबका मन मोहित हो जाता है । विशेष-विशेष जल फलादि एकत्रित करवाये। पुन: स्वयं सती ने स्नान किया। शुद्ध, सफेद वस्त्र धारण किये। जिनालय में जाकर सर्वप्रथम मन्दिर जी को शोभित किया। मनोरम तोरण, पताका, घण्टा, चमर, छत्र, सिंहासन आदि से सुन्दर साज-सज्जा से सजाया । आज कल कुछ अपने को मुमुक्षु कहने वाले कहते हैं कि वीतराग भगवान का मन्दिर भी वीतरागी जैसा रहना चाहिए। परन्तु उन्हें आचार्य श्री की व्याख्या पर ध्यान देना चाहिए । सरागी जीव, मनुष्य भगवान के सातिशयी पुण्य का प्रदर्शन कर अपने भावों को पवित्र करते हैं। त्यागभाव की वृद्धि करते हैं । लोभ कषाय का शमन करते हैं । इन्द्र कुवेर द्वारा समवशरण की अनुपम शोभा कराता है तो क्या भगवान को सरागी बनाता है ? नहीं। भगवान की महिमा का प्रदर्शन कर अपने अनन्त अशुभ कर्मों की निर्जरा करते हैं। यह सम्यक्त्व के प्रभावना अङ्ग का प्रदर्शन है। अतः जिनालय धवल मङ्गल-गान आदि से गुजित रहता है। अतएव मैनासुन्दरी ने भी नाना उपकरणों से जिनालय को सज्जित किया । पुनः प्रथम अष्टमी के दिन की पूजा विशिष्ट-विशिष्ट