Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रोपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[१८५ अन्वयार्थ ---(भन्यसत्तमः) भव्योत्तम, (स्वर्णपात्रे) सुवर्ण के थाल में तोयगंधाक्षताय :) जल, गन्ध, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप, फल (धृत्त्वा) रखकर (च) और (अy) अयं (कृत्वा ) बनाकर चढावे (पुनपच) और पुनः (अय॑म् ) अर्घ्य (कृत्वा ) बनाकर (इमाम् ) इस-निम्न (स्तुतिम् ) स्तुति को (पत्) पढे ।
भावार्थ-भव्योत्तम पूजक, स्वरणपात्र--थाल में जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, चरु, दीप, धूप और फल इन आठों द्रव्यों को स्थापित कर पूर्णभक्ति, विनय से अर्धावतारण करें। पुनः पाठों द्रव्यों को हाथ में लेकर निम्न प्रकार स्तोत्र पढ़े ॥१०६।।
सम्यक्त्वादि गुणोघरत्ननिलयं देवेन्द्रवृन्दाचितम् । दुष्कर्मारिकठोर दारुवहनं योगीन्द्रसंसेवितम् ।। लोकालोकविलोकनक कुशलं संसारसंतापहम् ।
भन्मयालिसुलेककारणामई श्रीसिद्धचक्र स्तुवे ॥१०७॥ अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वादि) सम्यग्दर्शन,ज्ञान, चारित्रादि (गुणौघ) गुणसमूह (रत्न) रानों का (निलयम्) भाण्डार, (देवेन्द्रवृन्द) देवेन्द्रों के समूह से (अचितम्) पूजनीय, (कठोर) कठिन (दुष्कर्म) पापकर्मरूपी (अरि) शत्रु स्वरूप (दारू) लकडी को (दहनम् ) जलाने में समर्थ, (योगीन्द्रसंसेवितम्) योगीन्द्रों से सेवनीय, (लोकालोक) लोक और अलोक (विलोकनंक) देखने में एकमात्र (कुशल) योग्य, (संसारतापहम् ) संसारताप का नाशक, (मुक्तिसुस्पैककारगम् ) मोक्षरूप सुख का एकमात्र हेतुभूत (श्रीसिद्धचक्रम् ) श्री सिद्धचक्र को (अहम् ) मैं (भक्त्या) भक्ति से (स्तुवे) स्तुति करता हूँ।
जय सिद्धचक्रदेवाधिदेव सुरनर विद्याधर विहितसेव ।
जय सिद्धचक्रभयचक्नमुक्त, मुक्तिश्रीसङ्गम शर्मशक्त ॥१०॥
अन्वयार्थ--(देवाधिदेव) देवों के देव (सुरनरविद्याधर) देव, मनुष्य और विद्याधर (विहितसेव) सेवा में रहते हैं हे (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (जय) जयन्त रहो। (भयचक्रमुक्त) भय समूह से रहित (मुक्तिश्रीसंगम) मुक्तिलक्ष्मी के संग (शर्मशक्त) सुख और अनन्त वल सहित (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र (जय) यापकी जय हो ।।१०८।।
जय सिद्धचक्रपरमात्मरूप, पावनगुणरञ्जित परमभूप ।
जय सिद्धचक्र कर्मारिवीर, दुस्तरभवसागर लब्धतीर ॥१०६॥ अन्वयार्थ प्राप (परमात्मरूप) परमात्मस्वरूप हो (पावनगुणरञ्जित) पवित्रगुणों मे शोभित हो (कारि) कर्मशत्रु को (वीर) सुभट हो (दुस्तर) भयङ्कर (भवसागर) संसार जलधि का (लब्धतीर) किनारा पाने वाले (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र (जय) जय हो । (परमभूप) सर्वोत्तम शासक हो (जय सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र जयशील रहो ।।१०६।।