Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[१८७
श्रन्ययार्थ ( कविराजपूज्य ) महानकवियों से पूज्य, ( शिवालय ) शिवमहल का ( परमराज्य ) उत्तम राज्य ( सम्प्राप्तः ) प्राप्त करने वाले ( सिद्धचक्र) हे सिद्ध देव ! ( जय ) जयशील रहो । ( दोषचक्रहत: ) दोष समूहों को नष्ट करने वाले ( तनुवातस्थित ) तनुवात वलय - लोकाग्रभाग में स्थित (नम्रश) इन्द्र द्वारा नमित (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र ( जय ) आपकी जय हो ।
जय सिद्धचक्न चित्तौघहरण, निजनाममात्र सम्पत्तिकरण । जय सिद्धचक्र निश्चलचरित्र, भवसागरतारण्यानपात्र ॥ ११५ ॥ ।
अन्वयार्थ -- ( चित्तोधहरण) चित्तसमूह के हरण हारे (निजनाम मात्र ) अपने नाम मात्र लेने वाले को (सम्पत्तिकरण ) इच्छित सम्पत्ति करने वाले, (निश्चल) अचल (चरित्र) चारित्रधारी ( भवसागर ) भव समुद्र ( तारण ) पार होने को ( थानपात्र ) जहाज हैं ( सिद्धचक्र) देव ! हे (सिद्धचक्र) सिद्धसमूह ( जय, जय ) जय हो, जय हो ||
इति सिद्धमूह, निर्गत मोहं यः स्तोति विशुद्धमतिः । सभवति गुणचन्द्रः परमजिनेन्द्रः सिद्धसौख्य सम्पत्तिततिः ।। ११६ ॥
श्रन्वयार्थ -- (इति) इस प्रकार ( सिद्धसमूहम् ) सिद्धचक्र (निर्गत मोहम्) मोह रहित, को (यः) जो ( विशुद्धमतिः) निर्मलबुद्धि ( स्तौति ) स्तुति करता है ( स ) वह (सिद्धसौख्यसम्पत्तिः) सिद्ध सुख की सम्पत्ति का ( ततिः) अधिपति ( गुणचन्द्र : ) गुणों का चन्द्रमा ( परमजिनेन्द्र : ) महान जिनेन्द्र भगवान (भवति) होता है ।
भावार्थ - प्रष्टद्रव्यों से क्रमश: पूजाकर पूर्ण अर्ध चढाकर पुनः स्वर्ण पात्र में प्रष्ट द्रव्य भरकर हाथ में ले अर्ध्य उतारण करते हुए इस स्तुति को भव्यजन परमभक्ति, विनय से पढें । स्तुति निम्न प्रकार है-
सम्यक्त्वादि गुणरत्नों के भाण्डार, शतइन्द्रों से पूज्य, दुष्कर्मकाष्ठ को भस्म करने बाले प्रज्वलित अग्नि, योगियों से वन्दित, लोक और अलोक को एक साथ देखने वाले हे सिद्धचक्रदेव ! आपकी जय हो । ग्राप संसार ताप का नाश करने वाले हो, जो भक्ति से आपकी सेवा करता है आप उसे मुक्तिपद प्रदान करते हैं। मैं आपका स्तवन करता हूँ ।
सिद्धच देव ! आप देवों के देव हैं, देव इन्द्र, विद्याधर, चक्री सभी प्रापकी सेवा में
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रत रहते हैं । आप भयचक्र के नष्ट करने वाले हैं। आपकी जय हो। आप मुक्ति का सम कराने वाले प्रापकी जय हो । श्राप परमात्मस्वरूप हैं, पावनगुणों के प्राकर नृपति हैं, सब मनरजक आपकी जय हो । कर्मशत्रु के संहारक संसार सागर के तटपर पहुँचे सिद्धच भगवन् आपकी जय हो । आप अक्षय परमावगाढ सम्यक्त्वधारी हैं, ज्ञान सागर के पारगामी हैं— केवल ज्ञान सम्पन्न हैं । दर्शनविशुद्धि से युक्त हैं। स्ववीर्य से अर्जित अनेक गुरगणों से