Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जय सिद्धचक्रसम्यक्त्वसार सज्ञानसमुद्रसमाप्तपार ।
जय सिद्धचक्रदर्शनविशुद्ध, बीजितगुणगणमरिण समिद्धि ॥११०।।
अन्वयार्थ-(सम्यक्त्वसार) सम्यग्दर्शन का सार (सज्ञानसमुद्रसमाप्तपार) सम्यग्ज्ञानरूपी सागर के तीर पाने वाले केवली (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र देव! (जय) जयशोल होओ, पाप ही (दर्शनविशुद्ध) विशुद्धदर्शन हो (वीर्याजित) स्व वीर्य से अजित (गुणगणमणि) गुणमग्गियों से (समिद्ध) सम्पन्न हो (सिद्धचक्र) हे सिद्धसमूह आपकी (जय) जय हो।
जय सिद्धिचक्र सूक्ष्मस्वभाव अवगाहनगुण सम्यक्त्वभाव ।
जय सिद्धचक्र गुरूलघुविमुक्त अव्याधिबाधलक्षणनिरक्त ॥१११॥ अन्वयार्थ -हे (चिद्धचक्र) सिद्धचत्र आप (सूक्ष्मस्वभाव) सूक्ष्मस्वभावी, (अवगाहनगुण) अवगाह्न गुण युक्त, (सम्यक्त्वभाव) सम्यक्त्व गूण युक्त हो आपकी (जय जय हो (गुरुलघुविमुक्त) अगुरुलघुगुणधारी, '(अव्याधिबाध) अव्याबाध (लक्षण) स्वभाव, चिन्ह (रक्त) लीन (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (जय) जय हो।
जयसिद्धचक्न दुर्गति विनाश, दुर्व्याधिहरण जनपूरिताश ।
जयसिद्धचक्र करुणासमुद्र, भुवनत्रयमण्डन नत मुनीन्द्र ॥११२॥
अन्वयार्थ--यह (सिद्धचक्र) सिद्धचक्र (दुर्गतिविनाश) दुर्गतियों का नाश करता है (दुव्याधिहरण) क्लिष्ट रोगों का नाशक (जन आशा) मनुष्यों की आशा (पूरितः) पूर्ण करने वाला है (करुणा) दया का (समुद्र) सिन्धु, (भुवनत्रय) तीनों लोकों का (मण्डन) शृगार (नतमुनीन्द्र) मुनीन्द्रों से भी नमस्करणीय है (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र देव ! (जय जय) आपकी जय हो, जय हो।
जय सिद्धचन लोकप्रसिद्ध, कालत्रय सम्भवभावशुद्ध ।
जय सिद्धचक्र चारित्रसार, मूनिजन संसेवित मुक्तिहार ॥११३॥
अन्वयार्थ--(लोकप्रसिद्ध) संसार प्रसिद्ध (कालत्रय) तीनों कालों में (शुद्धभाव) पवित्र भावों का (सम्भव) उत्पादक (सिद्धचक्र) हे सिद्धचक्र ! (जय) जय हो, (चारित्रसार) आप ही उत्तम चारित्र के सार हो (मुनिजन संसेवित) मुनियों से सेवनीय (मुक्तिहार) मुक्तिवधू के कण्ठहार (सिद्धचक्र ! ) हे सिद्धचक्र आपकी जय हो।
जय सिद्धचक कविराजपूज्य, सम्प्राप्तशिवालय परमराज्य । जय सिद्धचक्र हतदोषचक्र, तनुवातस्थित सनम्रशक्क ॥११४।।