Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
अते रत्नकपूरसद्द पैन्तनाशनैः । अज्ञानतमसस्तोम विध्वंसनमनुत्तरम् ॥ १०३ ॥
प्रन्वयार्थ - ( या : ) जो ( ध्वान्तनाशनेः) अन्धकार का नाश करने वाले ( रत्न, कर्पूरसद्दीप: ) रत्नों, कपूर के श्रेष्ठ दीपकों से ( अर्धते ) पूजा करते हैं ( तेषाम् ) उनका ( अज्ञानतमस्तोम) अज्ञानरूपसघन अन्धकार ( अनुत्तरम्) प्रतिशयरूप से ( विध्वंसनम् ) नाश को प्राप्त होता है ।
भावार्थ - रत्नों के दीपों से अथवा कर्पूरादि के दीपों से जो श्री जिनेन्द्रप्रभु, सिद्ध प्रभुखों की अर्चना करता है उसका प्रगाढ मोहांधकार विलीन हो जाता है ।। १०३॥
कृष्णागरु महाधूपैः पूज्यते परमादरात् । grocroceintodta दहनक हुताशनम् ॥ १०४॥
श्रन्वयार्थ - जो (दुष्टाष्टकर्म ) दुष्ट अष्टकर्मों रूपी (काष्टौघ) काठ के समूह को ( दहनेक) जलाने में एकमात्र ( हुताशनम् ) अग्निरूप है उस धूप पूजा को (परमादरात् ) परम आदर से (कृष्णागरु ) कृष्णागरु ( महाधूपैः ) अष्टाङ्ग या दशाङ्ग धूप से ( पूज्यते ) पूजा करते हैं वे भव्य कर्मकाष्ठ को जलाते हैं ।
भावार्थ - जो भव्य दशाङ्ग धूप से पूजा करते हैं उनके अष्टकर्म नष्ट हो जाते हैं । धूप अग्नि में खेई जाती है। अग्नि धूप को भस्मकर चारों ओर सुगन्ध फैलाती है उसी प्रकार यह धूप पूजा पूजक के आठ कर्मरूपी ईंधन को भस्मकर उसके अनन्तगुणों को प्रकट करती है ।। १०४ ।।
नालिकेराजम्बीर दाडिमादि फलोत्करैः ।
स्वर्गमोक्षसुखप्राप्त्यै समाराध्यम् विचक्षणैः ॥ १०५॥
अन्वयार्थ — ( विचक्षणः ) विदग्ध चतुर बुद्धिमानों को (स्वर्गमोक्ष सुखप्राप्त्यैः ) स्वर्ग और मोक्ष के सुख पाने के लिए ( नालिकेर: ) नारियल (आम्रजम्बीर) ग्राम, विजोरा ( दाडिमदि ) अनार, अंगूर, संतरा, केलादि ( फलोत्करैः ) फल समूहों से ( समाराध्यम् ) श्री जिन की प्राराधना-पूजा करनी चाहिए
भावार्थ- सुन्दर, सुपवत्र, ताजे, मधुर फलों से श्री जिन प्रभु, सिद्धभगवानादि की पूजा करने से स्वर्ग और मोक्ष की सम्पदा प्राप्त होती है । अत: है पुत्रि ! तुम सुमनोज्ञ उत्तम फलों से सिद्धचक्र पूजा करो ।। १०५ ।।
तोयगन्धाक्षताद्यैश्च घृत्वा भव्यसत्तमः ।
स्वर्णपामै पुनश्चायं कृत्वा स्तुतिमिमा पठेत् ॥ १०६॥
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