Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ___ अन्वयार्थ-- (शुक्लाष्टमी) तीनों मास में शुक्लपक्ष की अष्टमी से (समारभ्य) प्रारम्भ कर (जगद्धिते) संसार का हित करने वाले (अष्टौ ) आठों (दिनानि) दिन तक (जिनेन्द्रभवने) जिनालय में (त्रैलोक्यमोहिनीम्) तीनों लोकों को मुग्ध करने वाली (शोभाम् ) शोभा (कृत्वा) करके ।।६०॥
गहीत्वा सदगुरोराज्ञा भव्यानां शर्मदायिनीम् ।
यथाशक्ति समादाय सत्तपोऽपि सुखप्रदम् ॥११॥ अन्वयार्थ--(भव्यानाम्) भव्य को (शर्म) शान्ति (दायिनीम) देने वाली (सद्गुरोः) सद्गुरु की (आज्ञाम्) आज्ञा (गृहीत्वा ) लेकर (यथाशक्ति) शक्ति के अनुसार (सुखप्रदम् ) सुख देने वाले (सत्तपः) उत्तम तप को (अपि) भी (समादाय) लेकर धारण कर पुनः और भी IIE१॥
ब्रह्मचर्यवतंपूतं गृहीत्या तद्दिनाष्टकम् ।
कारयित्वा च जीवानामभयं शर्मकारकम् ।।६२॥
अन्वयार्थ--- (तदिनाष्टकम् ) उस अष्टमी के दिन से आठ दिन तक (पूत) पवित्र (ब्रह्मचर्यग्रतम्) ब्रह्मचर्य वत को (गृहीत्वा) धारण कर (च) और (शर्मकारकम्) सुख देने वाला (जीवानाम् ) जीवों को (अभयम्) अभयदान (कारयित्वा) करवा कर ।।६।।
स्वर्णादिविहितेपात्रे पचित्रे सुमनोहरे ।
चन्दनागुरूकप्रद्रव्येण शुभकारिणा ॥३॥ अन्वयार्थ- (सुमनोहरे) मन को मोहने वाले (पवित्रे) पवित्र (स्वर्णादिपात्रे) मुवर्ण आदि के पात्र में (विहते) स्थापित किये (चन्दनागुरु) चन्दन, अगुरू एवं (शुभकारिणा) पुण्यवर्द्धक (कप्पू रादि) कपूर लवंगादि (द्रव्येण) द्रव्य से ।।६३॥
सिद्धचक्रमहायन्त्रं समुद्धत्य विचक्षणः ।
पूर्वाचार्योपदेशेन हंकाराचैर्महाक्षरैः ॥१४॥ अन्वयार्थ-(पूर्वाचार्योपदेशेन) पूर्वाचार्यों के धर्मोपदेश के अनुसार (विचक्षणः) अद्भत (हकाराय:) हे यादि (महाक्षर: महान अक्षरों से (सिद्धचक्रमहायन्त्रम.) सिद्धचक्रमहायन्त्र को (समुद्धृत्य) रचकर-लेकर ।।४।।
सौवर्ण रजतं तानं यन्त्रं वा क्रियते शुभम् । जिनेन्द्रप्रतिमागे या पीछे संस्थाप्य निश्चले ॥६५॥