Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद अन्वयार्थ --(यत्) जो (मनोवाक्काय) मन, वचन, काय (शुद्धितः) शुद्धि पूर्वक (परस्त्री) अन्य को स्त्री का (परित्याग) त्याग करना तथा (निजभार्यायाम्) अपनी विवाहित स्त्री में (संतोषः) संतोष करना (तत्) वह (तुर्य) चौथा (अणुव्रतम् ) अण व्रत है।
भावार्थ पर स्त्री-अपनी समाज व अग्नि साक्षी पूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह होता है वह धर्मपत्नी अपनी निजपत्नी कहलाती है। इसके अतिरिक्त शेष-सधवा, कन्या, विधवा आदि सभी स्त्रियाँ परस्त्री कहलाती हैं। इनका मन, वचन, काय की शुद्धि पूर्वक त्याग करना अर्थात् मन से, वचन से अथवा काय से उनके प्रति रागभाव से प्रवर्तन नहीं करना तथा अपनी स्त्री में संतुष्ट रहना। अर्थात् उसका भी मर्यादित रूप में भोग करना यह चौथा ब्रह्मचर्याण व्रत कहलाता है । इस व्रत का स्त्री सभोग करता हुआ भी उससे विरक्त भाव रखता है। ग्रासक्ति पूर्वक अपनी पत्नी के साथ भी भोग नहीं करता। मात्र कर्म की बलवत्ता का प्रतीकार करता है ।।२७।।
ये परस्त्री रताः पापाः विवेकपरिवजिताः।
तेषां दुःखानि जायन्ते, लोकेऽवपरत्र च ॥२८॥
अन्वयार्थ-(ये) जो (विवेक) हेयोपादेयज्ञान से (परिवजिताः) हीन हैं, (परस्त्रीरता:) पर स्त्री में आसक्त हैं (पायाः) वे पापी है (तेषाम् ) उनके (अत्रैव) इस हो (लोके) लोक में (च) और (परत्र) परलोक में भी (दुःखानि) अनेक दुःख (जायन्ते ) होते हैं ।।२८।।
भावार्थ-जो पुरुष पर स्त्री में प्रासक्त होते हैं । वे लोक में महापापी हैं । विवेक से शून्य होते हैं । उनको कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं रहता। सतत विषयाभिलाषा के आश्रय रह असत्य, चोरी आदि पापों में भी लगे रहते हैं । लोक में निंद्य माने जाते हैं, दुर्जन कहे जाते हैं । बध बन्धनादि दुःखों को पाते हैं । परलोक में दुर्गति-नरक तिर्यञ्च में उत्पन्न होते हैं वहाँ च्छेदन-भेदन, ताडन-मारण, शुलीरोहण, बध-बन्धन आदि अनेकों कष्टों से उत्पन्न वेदना को भोगते हैं । इस प्रकार उभयलोक में दुःखों के ही पात्र बने रहते हैं ।।२८।।
परस्त्री स्वयमायाता, साऽपि सन्त्यज्यते बुधैः ।
सपिरणीवसदाराजन्, शीललीला समुन्नतः ॥२६॥
अन्वयार्थ (राजन् ) हे राजन् श्रीपाल ! (स्वयम्) अपने पाप (मायाता) प्रायो हुयी (अपि) भी (परस्त्री) परस्त्री (णीललीलासमुन्नतैः) शोलाचार में प्रवर्तन करने वाले (बुधैः) विद्वानों द्वारा (सा) वह परनारी (सदा) हमेशा (सपिणी) सांपिन (इव) समान (सन्त्यज्यते) दूर ही से त्याग दी जाती है ।।
भावार्थ--प्राचार्य श्री उपदेश कर रहे हैं, हे राजन् श्रीपाल ! सुनिये, जो पुरुष, शीलव्रत के रसिक हैं, ब्रह्मचर्यव्रत में ही विलास करने वाले हैं वे विवेकी हैं, विद्वान हैं, सज्जन