Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
''
7
श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[ १६५
प्रन्वयार्थ - ( कन्दमूलम ) बालू, गाजर, मूली प्रादि (च) और ( सन्धानं ) प्रचार, मुरब्बा ( काञ्जिकम ) काजी ( गुञ्जनं ) गाजर (तथा) और ( नवनीत ) मक्खन (पुष्प) फूल ( शाकम) पत्ती की भाजी (त्र) और ( विल्बम) बेलगिरि ( फलकम् ) फलों को ( स्वजेत्) छोडे । अर्थात् भक्षण नहीं करे ।
भावार्थ - आलू, गाजर, मूली आदि कन्दमूल, आचार, मुरब्बा काञ्जीफल, गृञ्जन-गाजर मक्खन, पुष्प ( केशर, नागकेशर, लवंग, जावित्री और मिलावा के फूलों को छोड़कर अन्य) पत्ती के शाक, बिल्वफल ये प्रभक्ष्य हैं इनको नहीं खाना चाहिए || ४५ ||
तथा मौनव्रताद्युच्चैर्यदुक्त जिनपुङ्गवैः ।
तत्सर्वं पालनीयं हि श्रावकाणां जगद्धितम् ॥४६॥
अन्वयार्थ - - (तथा) और (मौनव्रतादि) मौन व्रत आदि (यद् ) जो ( जिनपुङ्गवैः ) जिन भगवान द्वारा ( उक्तम ) कहे गये हैं (तत्) वे (सर्व) सर्वव्रत ( जगद्धितम ) जगत के हितकारी (श्रावकारणां) श्रावकों को (उच्च) प्रयत्न पूर्वक (हि) निश्चय से ( पालनीयम) पालन करना चाहिए ।
भावार्थ- शावकों को सात स्थानों में रखना चाहिए १. भोजन करते समय २. वान्ति होने पर ३. मल-मूत्र विसर्जन करते समय, ४. स्नान करते समय ५. मैथुन सेवन करते समय ६. जिनेन्द्र पूजा करते समय और ७. स्वाध्याय काल में और भी व्रत नियम जो जो जिनागम में वणित हैं उन समस्त व्रतों को यथायोग्य पालन करना चाहिए। ये व्रत संसार के हित कर्ता हैं । अर्थात् व्रतों के पालक सभी जीवों का कल्याण होता है ॥ ४६ ॥
दिग्देशानर्थदण्डोच्चैर्नामान्येतानि धोधनंः ।
गुणव्रतानि त्रीण्येव पालनीयानि शर्मणे ||४७ ॥
अन्वयार्थ - (दिग्देशानर्थदण्ड :) दिस्त्रत, देशव्रत और अनर्थदण्डव्रत ( नामानि ) नाम के ( एतानि ) ये ( गुरव्रतानि) गुरणव्रत (श्रीशिप) तीनों (एव) ही (बोधन) विद्वानों द्वारा ( शर्मा ) सुख के लिए ( पालनीयानि ) पालने योग्य हैं ।
भावार्थ - श्रावकों के तीन गुणव्रत होते हैं १. दिग्वत २. देशव्रत ३ श्रनर्थदण्डव्रत । इन तीनों का पालन करना प्रत्येक श्रावक का कर्तव्य है । ये सुख के देने वाला और शान्ति करने वाले हैं। इसलिए प्रयत्न पूर्वक पालन करना चाहिए ॥ ४६ ॥ अब आचार्य श्री इनका लक्षण क्रमशः बतलाते हैं
--
दिग्व्रतकथ्यते तच्चसदिक्षुवयापरैः ।
योजनैः क्रियतेसंख्या जन्मपर्यन्तकं हि यत् ॥४८॥