Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद |
[१६७
पापोपदेश हिंसादानापथ्यानदुःश्रुतिपञ्च ।
प्राहुप्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ।।५२।।र० श्रा०॥
अन्वयार्थ--(अदण्डधराः) मन, वचन, काय का अशुभपरिणमनरूप दण्ड से रहित मणधरादि ने (पापोपदेश) पाँच पापों का उपदेश, (हिसादान) छरी आदि हिंसा के उपकरणों का दान, (अपध्यान) दुर्ध्यान (दुःश्रुतिः) कषाय, कलहादि बर्द्धक शास्त्रों या चर्चादि का सुनना तथा (प्रमादचर्या) प्रमाद पूर्वक प्रवृत्ति ये (पञ्च) पाँच (अनर्थदण्डान्) अनर्यदण्ड (प्राहु) कहा है।
भावार्थ-गणधररादि ने अनर्थदण्ड के ५ भेद कहे हैं---१. पापोपदेश २. हिंसादान ३. अपध्यान ४. दुःश्रुति और ५. प्रमादचर्या ।
१. पापोपदेश–बलि चढ़ाने से पुण्य होता है, यज्ञ में की गई हिंसा हिंसा नहीं, पितर पिण्डदान से संतुष्ट होते हैं इत्यादि पापकों का उपदेश देना पायोपदेश है ।।
२. हिंसादान - छरी, कटारी, बन्दूक, तलवार, चूहादानी आदि हिंसा के कारणभूत द्रव्यों का दान देना हिंसादान है।
३. अपध्यान--मन में अशुविचार रना, किसी का अनिष्ट सोचनामादिः । अथवा अपने लिए खोटा विचार करना अपध्यान है।
४. दुःश्रुति- जिनके सुनने से कलह, वैर, द्वेष, लड़ाई झगड़े होने की संभावना हो इस प्रकार के पोथी, पुराण, चर्चा-वार्तादि सुनना दुःश्रुति है ।
५. प्रमादचर्या बिना प्रयोजन के इधर-उधर आना-जाना, गप्प गोष्ठी करना, पानो फैलाना, पृथ्वी खोदना आदि प्रमादचर्या है । इन पांचों अनर्थदण्डों का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है ॥५२।।
सामायिकंवतं, पर्वोपवासोपभोगयुग्मकम् ।
संविभागोऽतिथीनां च, शिक्षाक्तचतुष्टयम् ॥५३॥
अन्वयार्थ - (सामायिकम् ) तोनों संध्यायों में सावध का त्याग करना (पोपवास) अष्टमी और चतुर्दशी पर्यों में उपधासादि करना पर्वोपवास (व्रतम) व्रत है । उपभोगयुग्मकम) उपभोग परिभोग (च) और (अतिथीनाम ) व्रती एवं महाव्रतीयों को (संहिभागः) चारों प्रकार दान देना (ये) ये (चतुष्टयम ) चारों (शिक्षाब्रतम ) शिक्षाबत हैं।
भावार्थ --श्रावकों के चार शिक्षाव्रत हैं। जिनसे मुनिव्रत पालन करने की शिक्षा मिलती है उन्हें शिक्षायत कहते हैं । ये चार हैं--१. सामायिक, २. प्रोषधोपवास ३. भोगोपभोगपरिमाण और ४. प्रतिथिसंविभाग।