Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[ १५३
अन्वयार्थ - ( देवतामन्त्रतन्त्रार्थम्) देवता, मन्त्र तन्त्र आदि के निमित्त से भी ( त्रसदेहिनाम) त्रस जोवों की ( सांकल्पिकी) संकल्पी (हिंसा ) हिंसा ( सर्वथा ) पूर्णरूप से ( त्याज्या ) त्यागने योग्य है ( अयम् ) यह ( जैनपक्षः) जैनमत ( उत्तमः) उत्तम है ।
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भावार्थ - जनमत में देवताओं की पूजा बलि आदि के निमित्त से, मन्त्रसिद्धि या तन्त्रादि सिद्धि के लिए भी त्रस जीवों की हिंसा वर्जित है। क्योंकि पाप सर्वत्र पाप और दु:ख का कारण है । इसलिए संकल्पपूर्वक त्रस धातु का सर्वत्र निषेध है। भव्यात्मा श्रावकों को नित्य ही त्यागने का उपदेश दिया है। “मैं इस जीव का घात करूंगा" इस प्रकार का अभिप्राय रखकर जो जो हिंसा कर्म है वह सर्वत्र ही भय और दुःख का हेतु होने से सर्वथा त्यागना चाहिए ।
दयावल्ली सदा सेव्या सतां सद्गतिदायिनी । स्वर्गमोक्षफलान्युच्च र्या ददात्युपकारिणी ||१५||
अन्वयार्थ – (या) जो ( दयावल्ली ) दयारूपी लता (उच्च) महान ( स्वर्गमोक्षफलानि ) स्वर्ग और मोक्ष रूप फल को ( ददाति) देती है (सा) वह ( उपकारिणी) उपकार करने वाली (सद्गतिदायनी) श्रेष्ठ गति को देने वाली ( सताम् ) सज्जनों को (सदा ) निरन्तर ( सेव्या ) सेवनीय है ।
भावार्थ - दया बल्ली के समान है । लता में सुन्दर सुखद फूल और फल लगते हैं । दयारूपी लता में स्वर्ग मोक्ष रूपी फल फलते हैं। जो दया का पालन करता है उसे ही स्वर्गादि की विभूति और निश्रेयण भुख प्राप्त होता है । अतः यह परोपकारिणी है, सद्गति देने वाली है। इस प्रकार की दयावल्लरी सज्जनों को निरन्तर सेवन करना चाहिए। अर्थात् दयाभावना हमेशा वृद्धिंगल करते रहना चाहिए। जो दयाभाव का निरन्तर सिंचन करता है वही भव्य शीघ्र अजर-अमर पद प्राप्त कर लेता है। जीव रक्षण महान धर्म है ||१५||
सत्सम्पद्प्रमदाप्रमोदजननी, विघ्नौघनिर्नाशितो ।. शान्तिक्षान्तिविशुद्ध कति कमला, सत्सङ्ग संभाविनी ।
नित्यं जीवदया जगत्रयहिता, श्रीमज्जिनेन्द्रोदिता । भो भव्या भवतां भवाब्धितरणिः कुर्यात्सदामङ्गलम् ॥१६॥
अन्वयार्थ – (सत्सम्पत्प्रमदाप्रमोदजननी) उत्तम सम्पत्ति रूपी कामनी के श्रानन्द की माता (वी) विघ्नसमूहों का नाश करने वाली, (शान्ति) शान्त ( क्षान्ति ) क्षमा ( विशुद्धकीर्ति) निर्मलयश (विशुद्ध कमला) नीतिपूर्वक अजित त्रिभूति-लक्ष्मी (सत्सङ्ग ) सत्सङ्गतिकी ( संभाविनी) उत्पन्न करने वाली ( जगत्रयहिता) तीनों लोक का हित करने वाली (श्रीमज्जिनेन्द्रोदिता ) श्रीजिनेन्द्र भगवान से उदित - कथित ( भवाब्धितरणिः ) संसार