Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद]
[१४७ (बहुभितलोभिः) अनेकों सपो द्वारा (पाहन्तुम्) नष्ट करना (अशक्यम् ) अशक्य (सद्) बह पाप (सद्ज्ञ :) सम्यग्ज्ञानियों द्वारा (एकभवेन) एक ही भबद्वारा (हन्यते) नष्ट कर दिया जाता है।
मावार्थ--जिस पापकर्म को अज्ञानी करोड़ों भवों में, लास्रों कलेश उठाकर, अनेक प्रकार मिथ्यतप कम नमः, करने में :: नही सको, उस कार्य को जानी जीव एक ही भव में नष्ट कर देता है । सम्यग्ज्ञान की अचिन्त्य महिमा है और अपरिमित शक्ति है ।।६।।
वाचनापृच्छनाप्रायः स्वाध्यायः पञ्चभिस्सदा ।
जैनंज्ञानं दयाध्यानं समाराध्यं विचक्षणः ॥७॥
अन्वयार्थ--(प्रायः विचक्षणः) प्रायकरके बुद्धिमानों के द्वारा (वाचना, पृनछुना) वाचना, प्रश्न पूछना आदि (पवभिः) पाँच प्रकार को (स्वाध्यायः) स्वाध्यायों द्वारा (सदा) हमेशा (जैन) जिनधर्म (ज्ञानं) सम्यग्ज्ञान (दया) दयाधर्म (ध्यान) ध्यान (समाराध्यम् । अाराधन करने योग्य है।
भावार्थ-जैनागम में स्वाध्याय के ५ भेद कहे हैं - १. वाचना -- सर्वज्ञप्रणीत शास्त्रों का पढना २. पृच्छना-तत्त्वों के परिज्ञानार्थ विशेषज्ञों से प्रश्न पूछना ३. अनप्रेक्षा--ज्ञात तत्त्वों या प्रश्नों का बार-बार चितवन करना. ४. ग्राम्नाय--चोखना या कण्ठ करना और ५. धर्मोपदेश-भव्यों को धर्म का उपदेश करना। इन पांचों प्रकार के स्वाध्यायों से अपने धर्म, ज्ञान, दान, ध्यान, दया के स्वरूप को समझना चाहिए । विचक्षण पुरुषों का कर्तव्य है पाँचों प्रकार के स्वाध्यायों का सतत् यथायोग्य अभ्यास कर सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति करे ।।८।।
ज्ञानं निव तिसाधनं जिनमते ज्ञानं जगद्योतकम् ।
ज्ञानं संशय मोहविभ्रमहरं संसेव्यतां सज्जनाः ॥"
अन्वयार्थ—(जिनमते) जनमत में (ज्ञान) ज्ञान (निर्वृत्तिसाधनम्) बेराग्य का साधन (ज्ञानम् ) ज्ञान (जगद्योतकम् ) जगत का प्रकाशक और (ज्ञानम् ) ज्ञान ही (संशय, मोह, विभ्रम्) संदेह, प्रज्ञान, अनध्यवसाय (हरम्) नाशक है अतः (सज्जना:) सत्पुरुषों को (संसेव्यताम् ) भले प्रकार सेवन करना चाहिए ।
भावार्थ-जिनशासन में सम्यग्ज्ञान वैराग्य का साधन कहा है । सम्यग्ज्ञान पुर्णता को प्राप्त हो केवल ज्ञान तीनों लोकों का प्राप्त को युगपत्-एकसाथ प्रकाशक होता है । संशय सन्देह, अज्ञान और विभ्रम का नाश करने वाला होता है । मुमुक्षयों को इसी प्रकार का ज्ञान प्राराधन करने योग्य है । यही सेवनीय है । अर्थात् जिनागम में वही सम्पग्ज्ञान है जिसकी प्राप्ति से संसार शरीर भोगों से विरक्ति हो, सम्यक चारित्र धारण, पालन और बर्द्धन की योग्यता प्राप्त