Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
दस धर्म हैं । इस प्रकार इनका एका अहान माता : : कहलाता है यह ब्यवहार सम्यग्दर्शन का स्वरूप है । यह सम्पक्त्व निश्चयसम्यक्त्व का हेतू है-कारण है ।।३०॥
जिनोक्तसप्ततत्त्वानां ज्ञातुमिच्छाभवेद्र चिः ।
या सा श्रद्धा तदेव स्यात्सम्यक्त्वं भव्यदेहिनाम् ॥३१॥ अन्वयार्थ -(या) जो (जिनोक्त) जिन भगवान से कथित (सप्ततत्त्वानां) जीवादि सात तत्त्वों की (ज्ञातुम जानकारी को (इच्छा) इच्छा (रुचि:) प्रोति (भवेत् ) होती है । (सा, वह (थद्धा) श्रद्धान है (तदेव) वह श्रद्धान ही (भव्यदेहिनाम.) भव्यप्राणियों का (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन (भवेत्) होता है।
भावार्थ--द्रव्यानुयोग की दृष्टि में जिनेन्द्र कथितजीवादी सात तत्त्वों के यथार्थ स्वरूप को जानने की इच्छा रुनि है। उन तत्त्वों में श्रद्धा होना सम्यग्दर्शन है । यह सम्यक्त्व भव्य जीवों के ही होता है। अभव्यों के सम्यग्दर्शन प्रकट होने की योग्यता ही नहीं होती है। ॥३ ॥
निशङ्कितादिभिर्युक्तं सम्यक्त्वं चाष्टभिर्गुणः ।
पापं निहन्ति भव्यानां सन्मन्त्री वा विषं ध्रुवम् ॥३२॥ अन्वयार्थ-(यथा) जिस प्रकार (वा) जिस प्रकार (सन्मन्त्र:) श्रेष्ठ मन्त्र (ध्रुवम् ) निश्चय से (विषम् ) विष को नष्ट कर देता है (वा) तथा उमो प्रकार (निशाङ्कितादिभिः) निःशवितादि (अष्टभिर्गुणग:) आठ गुणों से (युक्तम् ) सहित (सम्यक्त्वं) सम्यग्दर्शन भी (भव्यानाम् ) भव्य जीवों के (पापम् ) पारकर्म (च) और (विषम ) कटु कर्मफल को (निन्ति) नष्ट कर देता है।
भावार्थ - भव्य प्राणियों को सम्यग्दर्शन अचूक औषधि है। जिस प्रकार वास्तविक मन्त्र से भयङ्कर से भयङ्कर भी दुष्कर्म-पापकर्म से उत्पन्न विष नष्ट हो जाता है। उसी प्रकार अष्ट अङ्गों से परिपूर्ण सम्यग्दर्शन भी भव्यजनों के पापडूरों को क्षणमात्र में नष्ट कर देता है। वर्षों से संचित की रुई को एक हल्की सो अग्नि क्षणमात्र में भस्म कर देती है। ठीक इसी प्रकार भव-भवान्तरों में सञ्चित पापकर्म समूह अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शन द्वारा क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है ।।३२।।
सम्यक्त्वेन युतो जीवस्त्रलोक्याधिपतिर्भवेत् ।
तद्विनाव्रतयुक्तोऽपि संसारो नात्र संशयः ॥२३॥
अन्वयार्थ (सम्यक्त्वेनयुतो) सम्यग्दर्शन से सहित (जीवः)जीव (त्रैलोक्याधियतिः तीन लोक का नाथ है (भवेत्) हो जाता है (तद्विना) सम्यक्त्व रहित (व्रतयुक्तोऽपि) ब्रतों से साहित होने पर भी (संसारी) संसारी ही रहता है (अत्र) इसमें (न संशयः) संदेह नहीं ।