Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
[श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद जिनभगवान द्वारा कथित (सम्यक्त्वम ) सम्यग्दर्शन (महाभब्यः) उत्तम भव्यों द्वारा (पालनीयम् ) पालने योग्य है।
भावार्थ-साश्वत सुख के इच्छक महापुरुषों को सम्यग्यदर्शन पालने योग्य है क्योंकि यह सम्यग्दर्शन मुक्ति का कारण है, संसार सागर को पार कराने वाला है श्री सर्वजदेव स्वामी द्वारा कहा गया है ।।३६ ।।
ये भव्याः प्रतिपालयन्ति नितरांसम्यक्त्वरत्नहदि । श्रीमज्जैनपदाब्ज चिन्तनरता निश्शङ्कितायेगु णः ॥ दुर्गत्यादि समस्तदोषहरणं सत्सम्पदा कारणम् ।
तेषां संङ्गममाश्रयन्ति मुदिताः स्वर्गापवर्गश्रियः ॥३७॥
अन्वयार्थ- श्रीमज्जैनपटाजचिन्तनरता-परा) श्रीमज्जिनेन्द्र भगवान के चरणकमलों के ध्यान में लीन रहने वाले (ये) जो (भव्याः भव्य जीव (नितराम ) पूर्णरूप से (दुर्गत्यादिसमस्त दोष हरणम) दुर्गतियों के सम्पूर्ण दुःखों का नाश करने वाले (सत्सम्पदा) उत्तम सम्पत्ति के (कारणम ) कारण स्वरूप (सम्यक्त्वरत्नम ) सम्बग्यदर्शन रूपी रत्न को (हदि) हृदय में (निःशङ्किताद्य गुण:) निःशङ्कित आदि आठ अगों और संवेगादि पाठगुणों सहित (प्रतिपालयन्ति) सम्यक् प्रकार पालन करते हैं (तेषां) उनके (सङ्गमम )सङ्गम को (मुदिताः) प्रानन्दित हुयी (स्वर्गापवर्गश्रिय:) स्वर्ग और मोक्ष लक्ष्मी (प्राश्रयन्ति) आश्रय करतो हैं ।
भावार्थ .. सम्यग्दर्शन अमूल्य रत्न है । आत्मा का स्वभाव है। प्रात्मा में ही प्रात्मा द्वारा इसका उदय होता है । यद्यपि वाह्य निमित्त भी परमावश्यक हैं। एक बार भी इसकी प्राप्ति हो जाय तो जीब अर्द्ध पुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार में नहीं रह सकता । निरतिकार सम्यक्त्व पूर्वक समाधिमरण करने वाला भव्यात्मा ७-८ भन्न से अधिक भव धारण नहीं करता । क्षायिक सम्यग्दृष्टि तो अधिक से अधिक चोथे भव में मुक्ति प्राप्त करता ही है। उसी भव से भी मुक्त हो सकता है । इसको माहात्म्य से दुर्गतियों नरक तिर्यञ्च का नाश हो जाता है । दु:खों का अन्त होता है । स्वर्ग और मुक्ति श्री वरमाला लिए लालायित रहती है । अतएव भव्य जीवों को सम्यक्त्व को कारणभूत जिनवर गाज मक्ति निरन्तर करते रहना चाहिए। एकमात्र जिनभक्ति ही, जिनदर्शन को जो निश्तिादि आठ अङ्ग और संवेगादि पाठ गुणों से सहित तथा २५ दोष रहित पालन करता है उसके सर्व सङ्कट कटते हैं, सांसारिक वैभव भोगकर नि:श्रेयश पद प्राप्त होता है।
॥इति दर्शनाधिकारः ।।शुभमस्तु।। अथ जानाधिकारः कथ्यते--
यज्ञानं श्रीजिनेन्द्रोक्तं विरोधपरिवजितम् । ! तज्सानंशदं नित्यं संसाराब्धि तरण्डकम् ॥१॥