Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद
अन्वयार्थ--(इति) इस प्रकार (शुभोदयात्) पुण्यकर्म के उदय से (सा) वह (राजपुत्री) राजकुमारी (कंदर्पसुन्दरी) मदनसुन्दरी (श्रीजिननाथोक्तं) श्री जिनेन्द्र भगवान कथित (भुवनोत्तमम्) तीनों लोकों में सर्वोत्तम (स्वागमम्) अपने जिनागम को (यमधराख्यस्य) यमधर नाम के मुनिराज के (जगद्धिते) जगत का कल्याण करने वाले (पादमूले चरणारविन्द के सान्निध्य में (पठित्वा) पढ़कर (ज्ञान-विज्ञान-सम्पन्ना) ज्ञान विज्ञान की खानरूप (सदाचार विराजिता) सम्यक्त्वाचार रूप शोभित हुयी (च) और (सा) वह बाला (विद्यया) विद्या से (वा) मानों (मुनेः) मुनि को (उज्वलामतिः) निर्मल बुद्धि विशेष रूप से (शोभतेस्म) सुशोभित होती थो। (वा) अथवा (असौ) वह (अतिमनोहरा) अत्यन्त सुन्दर (कुलस्य दीपिका इव) आमे फूल को प्रकाशित करने वाली दीपिका समान (बभूव) हुयी ।
भावार्थ-पूर्वोक्त विधि से मदनसुन्दरी ने समस्त शास्त्रों का सर्वाङ्गोण गहन अध्ययन किया । मुनि पुगत गाधर मुभिराम सावन स (ए: म.नों को रखकर उसे ज्ञान-विज्ञान में निपुरा कर दिया । उसकी प्रतिभा इतनी विकसित हुयी मानों मुनिराज को निर्मल समुज्वल मति ही मूर्तिमान रूप धारण कर प्रकटी है । वह शील सम्यक्त्व मण्डित अपने सदाचार से प्रत्यन्त शोभित हुयी ऐसा लगता था मानों विनय आदि गुणों से विभूषित वह अपने कूल की दोपक ही थी । संसार में कहावत है "बेटी नाम काढ़े या रोटी" अर्थात यश और अपयश का विस्तार करने वाली या तो बेटी होती है या भोजन । यदि पुत्री विनय शील, नम्र, विपी ज्ञान विज्ञान, बिबेक सहित होती है तो वह अपने गार्हस्थ जीवन में प्रवेश कर उभवकुल माता-पिता और सास-ससुर का यश विस्तारने वाली होती है स्वयं भी प्रशंसनीय होती है, और कुल वंश को भी कीर्ति फैलाती है यथा महासतो सीता, राजुल, अनन्तमतो चन्दना आदि। यदि कुलटा अनपढ़, कुरुपा, हुयो तो निन्दा की कारण होती है यथा कनकमाला, चन्द्राभा आदि । अतः यह मदन सुन्दरी उसी प्रकार निदोष सम्पज्ञान को कलिका सदश ज्ञान विज्ञान कला गुण विभुषिता भो हो गई ।।७१-७२-७३।
. साधूनां सङ्गतिस्सत्यं फलत्युच्चस्सदा सुखम् ।
भयानां कल्पवल्लीव परमानन्ददायिनी ॥७४।।
अन्वयार्थ--(सत्यम्) यथार्थ रूप से (भन्यानाम् ) भव्यात्माओं के (साधूनांसङ्गतिः) साधु-सन्त समागम (सदा) निरन्तर (परमानन्ददायिनी) उत्कृष्ट आत्मानन्द को देने वाली (कल्पवल्ली इव) कल्पलता के समान (उच्च:) महान (सुखम्) सुखरूपो फल को (फलति) देतो है -फलता है।
भावार्थ. यहाँ आचार्य श्री सङ्गति का निमित्त क्या करता है ? यह बता रहे हैं। साधु-सन्तों की सङ्गति जीव का कल्याण करने वाली होती है। परमपूज्य संयमी निग्रन्थ वीतरागी साधु के पादमूल का मिलना ही महान पुण्य का हेतु हैं क्योंकि "साधुनां दर्शनं पुण्यम्" साबुओं का दर्शन ही पुण्यरूप होता है। जिन्हें उन दिगम्बर ज्ञान ध्यानो महामुनियों