Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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"अथ तृतीय सर्गमारभ्यते"
"तीसरा सर्ग प्रारम्भ होता है" अर्थकदा तया तत्र स नीतो जिममन्दिरम् ।
भार्यया च संतापनाशनं शर्ममन्दिरम् ॥१॥ अन्वयार्थ-(अथ) दोनों दम्पत्ति मुख से रहने लगे। तब (ऐकदा) एकदिन-एक समय (तया) उस (भार्यया ) पत्नी मदनसुन्दरी द्वारा (स) वह थोपाल राजा (सताप नाशनम् ) सन्तापनाशक (शर्ममन्दिरम् ) शान्तिदायक (च) और (तत्र) उस पापनाशक {जिनमन्दिरम् ) जिन भगवान के मन्दिर में (नीतः) लाया गया।
भावार्थ-मदनसुन्दरी भक्तिपरायण थी । जिनभक्ति उसकी रग-रग में समायी थी। उसने अपने जील, मौजन्य, पतिभक्ति, सेवापरायणता से श्रीपाल का मन अपने में पूर्ण अनुरक्त कर दिया था । श्रीपाल उस अमरसुन्दरी गुणभूषणा को पत्नी रूप में होत्फुल्ल तो था ही उसका पूर्ण सम्मान भी करता था और उसके विचारानुकल कार्य भी करता था । अत: किसी एकदिन अवसर पाकर विनयपूर्वक्र श्रीपाल को श्रीजिन भगवान के दर्शन करने के लिए जिन मन्दिर में पधारन को प्रार्थना की । श्रीपाल ने भी इसे सहर्ष स्वीकार किया । अत: पति को लेकर, संताप को नाश करने वाले, शान्ति के निलय, सुखदायक जिनालय में प्रायो ।।१।।
समभ्यर्च्य जिनाधीशान् सुरासुरसचितान् ।
स्तुति संचक्रतुस्तत्र दम्पत्ती तो सुखप्रेदान् ।।२।। अन्वयार्य--(तत्र) वहाँ जिनालय में जाकर (नौ) वे दोनों (दम्पत्ती) पति-पत्नि (सुरामुरसमचितान्) सुर और असुरों से पूजनीय (सुखप्रदान्) नाना सुखों के देने वाले (जिनाधीशान्) जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमाओं को (समभ्यय) सम्बप्रकार विधिवत् पूजकर (स्तुति) स्तुति (संचऋतुः) करने लगे ।
भावार्थ -मैना सुन्दरी एक दिन अपने पूज्य पतिदेव श्रीपाल को लेकर जिनदर्शन को जिनालय में प्रायो। वह जिनालय परमपावन, शान्तिप्रदायक था । उसमें अनेकों रत्नमय जिनप्रतिमाएं विराजमान थी । सुर-असुरादि आकर वहाँ जिनबिम्बा को पूजा भक्ति करते थे । उन दोनों ने भी यथायोग्य उनको अष्टद्रव्य से विधिवत् पुजा की । अर्चना करके पुनः दोनों जिनभगवान की स्तुति करने लगे ।।२।।
जय त्वं श्रीजिनाधीश सर्वदेवेन्द्रवन्दितः । जय त्वं गुणमाणिक्यरञ्जिताखिल भूतलः ॥३॥