Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद
नमस्कार करके ( मुनिं ) मुनिराज को ( प्राह ) बोली ( भो स्वामिन् ) हे स्वामिन् (भवसागरे ) भवसमुद्र में (मज्जताम् ) इनते हुए ( भव्यजन्तुनाम) भव्यप्राणियों को ( महामुने) हे महामुनिराज (देव) हे देव ( दर्शनज्ञानचारित्रविराजत ) सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र समन्बिते ! ( त्वया ) आप द्वारा ( हस्तावलम्बनम् ) सहारा (दत्तम् ) दिया गया है। अर्थात् संसार जलधि में डूबने वालों को हस्तावलम्बन देते हैं ।
भावार्थ आचार्य श्री से धर्मवृद्धि प्राप्त कर मदनसुन्दरी ने पुनः नमस्कार किया तथा गुरुस्तवन करने लगी हे स्वामिन्! हे रत्नत्रयमण्डिते, हे देव ! आप परमोपकारी हैं । अनेकों भन्यात्माओं को संसार सागर से पार उतारा है। दुःख समुद्र में हबते अनेकों को आप द्वारा हस्तावलम्बन दिया गया है ।
श्रूयतां भो कृपांकमा बचो मे लालोचन ।
या संस्थापितं कर्म पिता मे कुपितस्तराम् ॥ १४ ॥
अन्वयार्थ - मदनसुन्दरी श्रीगुरु मुनिराज से अपनी व्यथा निवेदन करती है (भो) है. (ज्ञानलोचन ! ) ज्ञानरूपी नेत्र के धारक ! ( कृपाम) दया ( कृत्वा) करके (मे) मेरे (बचः) वचन ( श्रूयताम ) सुनिये, (मया) मेरे द्वारा ( संस्थापितं कर्म ) उपार्जित किये कर्म से ( मे ) मेरा (पिता) पिता ( तराभ्) अत्यन्त ( कुपितः ) क्रोधित हुआ ।
भावार्थ- मदनसुन्दरी मुनिराज के समक्ष निवेदन करती है। हे ज्ञानलोचन, श्रागम चक्षु मुनीन्द्र ! मैंने पूर्वभव में कौनसा दुष्कर्म किया था ? मेरे पिता मुझसे अत्यन्त कुद्ध हुए ? हे प्रभो ! आप सर्वज्ञाता हैं। कृपाकर मेरा संदेह दूर करें ।। १४ ।।
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मुनिर्जगाद भी पुत्री यत्त्वया सुखदुःखयोः ||
कर्मवीजंकृतं तच्च सम्यक् त्वं स्थापितं त्वया ॥ १५ ॥
अन्वयार्थ - - उत्तर में मुनीश्वर कहने लगे ( मुनिर्जगाद :) मुनिवर बोले ( भो पुत्री ) हे बेटी (यत्) जो ( त्वया ) तुम्हारे द्वारा ( सुखदुःखयोः ) सुख दुःख का ( बीजम् ) बीज रूप (कर्म) शुभाशुभ कर्म ( कृतम ) किया गया है (तत् च ) और बह ( सम्यक् ) भले प्रकार से ( त्वया) तुम्हारे ही द्वारा ( त्वं ) तुमने (स्थापितम् ) अर्जित किया है ।
भावार्थ -- स्याद्वाद सिद्धान्त के ज्ञाता, अनेकान्त के अध्येता वे मुनिराज गम्भीर ललित वाणी में यथार्थ प्रतिपादक वचन कहने लगे । हे पुत्री ! जीव अपने द्वारा स्वयं उपार्जित कर्मबीज के फल- सुख-दुःख को स्वयं ही भोगता है। तुमने पूर्व भव में सुख-दुःख का कारणीभूत कर्म अपने द्वारा ही स्वयं संचय किया था । उसी बीजभूत कर्म आज तुम्हे सुख-दुःख रूप में उदय श्राकर फल दे रहा है । अर्थात् प्रथम सुख - पुण्य कर्म का फल भोगा राजपुत्री हुयी । हर प्रकार से सुखा पूर्वक सद्गुरु के सान्निध्य में अध्ययन का सुअवसर प्राप्त हुआ ।