Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र तृतीय परिच्छेद ]
[ १३५
( श्रीमज्जनेन्) श्रीमान् श्री जिनेन्द्रों को (स्तुत्त्वा) स्तवन करके ( परमानन्ददायकान् ) उन परमोत्तम आनन्द के देने वाले भगवन्तों को ( पुनः पुनः ) बार-बार (गाढं ) विशेष भक्ति से [ नवा ] नमस्कार कर॥६॥
ततस्तत्रावलोक्योच्चैस्सुगुप्ताचार्यमुत्तमम् ।
नवा तत्पादयोर्मूले संस्थितौ शर्मदायिनि ॥ १० ॥
श्रन्वयार्थ – [ ततः ] तब [ तत्रा ] वहाँ जिनालय में [उत्तमम् ] श्रेष्ठतम [सुगुप्ताचार्यम् ] सुगुप्ताचार्य नामक श्राचार्य को [ उच्चैः ] विशेषरूप से [अवलोक्य ] देखकर [ शर्मदाafa ] शान्तिप्रदायक [ तत्पादयोमूले | उनके चरण द्वय के सान्निध्य में [ संस्थित] दोनों बैठ
गये 1
मावार्थ- नाना प्रकार से भक्ति पूर्वक जिनेन्द्र प्रभु का गुणगान किया । सुमधुर स्वर से ललित पद्यों से स्तुति की परमानन्द को प्राप्त उन दोनों ने उन्हें बार-बार नमस्कार किया । पुन: वहाँ जिनालय में विराजे श्री सुगुप्ति नामक श्राचार्य परमेष्ठी भगवान को देखा । हर्षातिरेक से भरित वे उन आचार्य श्री के कल्याणकारी चरणद्वय के समीप नमस्कार कर बैठ गधे ॥ १० ॥
तन्मुनेर्धर्मवृद्धौ तौ संतुष्टौ मानसेतराम् ।
पीयूषधारया सिकौ यथा रोमाञ्चिताङ्गकौ ॥ ११ ॥
श्रन्वयार्थ - [ तन्मुने: ] उन मुनिराज से [ धर्मवृद्धी] धर्मवृद्धि प्राशीर्वाद प्राप्त करने पर [ तौ | वे दोनों [ मानसे | मन में [तराम् ] आतिशायि रूप से [ संतुष्टौ ] संतुष्ट हुए [ यथा ] जिस प्रकार मानों [ पीयूषधारया ] अमृत की धारा में [ सिक्तौ ] स्नानकर [ रोमातिङगको ] पुलकितमात्र हो गये ।
भावार्थ -- उन दोनों ने [ मैनासुन्दरी और श्रीपाल ने] आचार्य श्री को नमस्कार किया । गुरुराज ने उन्हें बात्सल्यमयी धर्मवृद्धि आशीर्वाद दिया । मुनिराज से आशीर्वचन प्राप्त कर उन्हें परमानन्द हुआ। दोनों आनन्दरूपी हर्षा कुरों से पुलकित हो गये । मानों अमृत की धारा में स्नान किया हो ॥। ११ ॥
पुनर्नवामुनिं प्राह तदा सवनसुन्दरी ।
भो स्वामिन् भय्य जन्तूनां मज्जतां भवसागरे ॥१२॥ हस्तावलम्बनं देव त्वया दत्तं महामुने
दर्शनशानचारित्र रत्नत्रय विराजत ॥१३॥
मन्वयार्थ ( तदा) तव ( मदनसुन्दरी ) मैनासुन्दरी (पुनः) फिर से ( नत्त्वा)