Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद]
[१३१ भावार्थ-मैंना के पिता राजा ने सभी साथी कुष्ठियों को यथायोग्य पृथक्-पृथक धर बनवा दिये । सभी बेचारे कर्म के सताये धोपाल को अपना आश्रयदाता मानकर उसकी सेवा में तत्पर हुए । अभिप्राय यह है कि शरीर पीड़ा से पीडित महाराज श्रीपाल इस अवस्था में भी राज्यत्व भाव से संयुक्त था । अर्थात् उसके सभी साथी प्रजा के रूप में वहां बस गये और श्रीपाल को अपना नेता राजा बनाया । ठीक ही है तरासने पर भी हीरा की चमक कम नहीं होती, अपितु और अधिक हो जाती है । इसी प्रकार महापुरुषों का जीवन आपत्तियों से अभिभूत नहीं होता, अपितु विशेष समुज्वल होता जाता है ।।१३६।।
इत्थंविवाहविधिना स नरेन्द्र पुत्रीम् । सम्प्राप्य पावनति जिनधर्मरक्ताम् । यावस्थितो विधिवशानवभाविभूतिः ।
श्रीपालनाम नृपतिश्च तदा प्रसङ्गः ॥१३७॥ अन्वयार्थ--(इत्थं) इस प्रकार (पावनमतिम्) निर्मलबुद्धि वाली (जिनधर्मरक्ताम्) जिनधर्म में लीन रहने वाली (नरेन्द्रपुत्रीम्) राजा की पुत्री को (विवाहविधिना) विधिवत् विवाह करके (सम्प्राप्य ) प्राप्त कर (स) वह (श्रीपालनामनपति:) श्रीपालनाम का राजा (यावत्) जब तक (स्थितः) स्थिर हुआ कि (विधिवशात) भाग्यवश (तदा) तभी (नव) नवीन (भाविभूतिः) भविष्य की विभूति का (प्रसङ्गः) प्रसङ्ग आया ।
मावार्थ--इस प्रकार महाराज श्रीपाल ने अद्भुत सुन्दरी, अद्वितीय विदुषीरत्न, जिनधर्मरता, सिद्धान्त शास्त्रज्ञा, तथा अनेकान्त सिद्धान्त की वेत्ता उस राजकुमारी मैनासुन्दरी को विवाहविधि के अनुसार परिनरूप में प्राप्त किया । उसके साथ बह सुख पूर्वक स्थिर हुआ मानों भाबिविभूति की सूचना का यह प्रसङ्ग था । अर्थात् 'बिवाह क्या था श्रीपाल के भविष्य जीवन के विकास की सुचना थी । वस्तुतः माविबलवान होती है । भाग्योदय की सूचना पाकर वे नवदम्पत्ति आशान्वित हुये ।।१३७।। इति श्री सिद्धचक्रपूजातिशयसमन्वित श्रीपाल महाराज चरिते भट्टारक श्री सकल. कीति विरचिते मदनसुन्दरी विवाह वर्णनो नाम द्वितीयः परिच्छेदः ।।
दूरण्डवासमै समाप्तम्-शुभमस्तु।।
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