Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ]
[ १२९
( शुभाशुभम् ) अच्छा बुरा ( भवेत् ) होता है ( लोके) संसार में ( माता-पिता) माँ बाप ( अथवा ) अथवा ( बांधवा:) पारिवारिकजन (क्रि) क्या (करोति) करता है ?
भावार्थ-नाशकाले विपरीत बुद्धि” युक्ति को चरितार्थ करने वाले राजा को अनर्थ करने के बाद बुद्धि आई । अब विचार रहा है कि वस्तुतः भाग्य ही बलवान है । प्राणियों का अच्छा-बुरा भाग्यानुसार ही होता है। शुभकर्म सुखदाता और अशुभकर्म दुःख का ट्रेन है। संलगन में मङ्गना, दिना का हे त्या अन्य मेरे साम है। कोई कुछ भी नहीं कर सकता है । नित्र अर्जित कर्म को छोड़ कर कोई भी किसी का कर्त्ताधर्त्ता नहीं है |
इत्यादिकं विधायोच्चैः पश्चात्तापं नराधिपः ।
Eat तस्मै तदा सप्तभूमि, प्रासादमुत्तमम् ॥ १३२॥
अन्वयार्थ - - ( इत्यादिकम) उपर्युक्त प्रकार (उच्च) नाना प्रकार से ( पश्चात्ताप ) पश्चात्ताप-शोक (विधाथ) करके ( नराधिपः ) नृपति ( तस्मै ) कन्या के लिए ( उत्तमम् ) श्रेष्ठ (सप्तभूमि) सतना ( प्रासादम् ) महल (ददी) दहेज में दिया ।
'भावार्थ · अनेकों प्रकार से ऊहापोह, तर्क-वितर्क कर राजा पछता कर दुखी हुआ । उसने निर्णय किया व तो पाणिग्रहण संस्कार हो ही गया । कुलजानों का एक ही वर होता है । कन्या का ही विवाह आगम बिहित है। अतः इसमें तिलभर भी परिवर्तन नहीं हो सकता । कुलीन, सती कन्या अपने एकमात्र अग्नि की साक्षी पूर्वक प्राप्त वर को पाकर ही संतुष्ट रहती है वह योग्य-अयोग्य कैसा भी क्यों न हो। अतः अब मुझे एक ही कार्य करना चाहिए कि कन्या के रहने निवासादि की पूर्ण व्यवस्था की जाय । इस प्रकार विचार कर उस राजा ने अपनी पुत्री को सात मञ्जिल का महल प्रदान किया। इस प्रत्यक्ष उदाहरण से विधवा विवाह के समर्थकों को अपना दुराग्रह छोड़ना चाहिए । पापकर्म में अबलाओं को फंसाकर उनके प्रति अत्याचार करने का त्याग करना चाहिए। उन्हें याद रखना चाहिए कि विवाह कन्या का ही होता है । कन्या तभी तक नारी रहती है जब तक कि किसी भी पुरुष को मातापिता बन्धु वर्ग द्वारा अग्नि को साक्षी पूर्वक प्रदान न की जाय । विवाह होते ही वह पत्नी हो जाती है। पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के लिए वह परस्त्री हो जाती है, यतः असेव्य हो जाती है | पत्नी होने पर उसके लिए भी पति के अतिरिक्त अन्य समस्त पुरुष पिता, भाई और पुत्र सदृश हो जाते हैं भला उनका सेवन कैसे योग्य होगा ? कभी नहीं, सर्वथा हेय है, अयोग्य है । अतः न्यायपथ पर आये हुए राजा ने अपनी पुत्री को अन्य सर्व सामग्री निम्न प्रकार प्रदान की
दिव्याभरणवस्त्राणि स्वर्णमाणिक्यसंचयम् ।
दासीदासता मुच्चैश्चामरादि विभूतिभिः ॥१३३॥