Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र fat परिच्छेद |
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प्रदेशों के चलायमान होने से शुभाशुभ कर्म प्राते हैं। इनका आत्मा से सम्बन्ध होता है यही दुःख का कारण है। ये अशुचिकर दुख के कारण हैं। इनका आना ही संसार है। ये आत्मवस्भाव से विपरीत हैं ।
८. संबर भावना--संवर आत्मस्वभाव की प्राप्ति का उपाय है। श्राते हुए कर्मों का रुकना ही संवर हैं। नवीन कर्म न आने से आत्मा का कर्मभार हलका होगा। इस संवर के काररण उपाय पाँच महाव्रत, ५ समिती, ३ गुप्तियाँ १० धर्म, १२ अनुप्रेक्षाएँ एवं २२ परीपह, जय हैं। इनके स्वरूप का चिन्तवन करना ।
६. निर्जरा भावना - आत्मा के साथ पूर्व संचित कर्मों का धीरे-धीरे थोडा-थोडा निकलना झड़ जाना निर्जरा है। संवर पूर्वक निर्जरा होने पर आत्मा हलका होकर ऊपर उठता है । यथा किसी नाव में छिद्र होने से पानी आने लगा ( यह प्राखव ) पानी न आवे इसके लिए उस छिद्र को बन्द कर दिया ( यह हुआ संवर) पुनः आचुके पानी को शनैः शनैः निकाल फेंकना यह है निर्जरा | अर्थात् पूर्वोपार्जित कर्मों का एक देश क्षय होना निर्जरा है इस प्रकार विचार करना ।
१०. लोक भावना - - लोक स्वरूप का चिन्तन करना । लोक, ऊध्वं, मध्य और अधो के भाग से ३ भागों में विभक्त है । इसका आकार कोई पुरुष दोनों पैरों को प्राजू-बाजू पसार कर कमर पर दोनों हाथों को रखकर खड़ा हो उसका जैसा श्राकार है । वैसा ही लोक का है । इसमें जीव अनादि से भटकता फिरता है, यहीं से पुरुषार्थी भव्य जीव घोर तपकर कर्मकाट मुक्ति पाता है । वस्तुतः जीव के बंधन मुक्ति की रङ्गभूमि यह लोक ही है ।
११. बोधि दुर्लभ भावना - इस प्रकार विचार करना कि संसार में बोधि रत्नत्रय का पाना महान कठिन है । उस दुर्लभतम बोधि विना मुक्ति हो नहीं सकती इसलिए उसे पाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
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१२. धर्मभावना -- धर्म आत्मा का स्वभाव है । यही सुख की खान है । धर्म अमोल रत्न है, धर्म ही मार है, धर्म ही संसार का पार है, धर्म ही मुक्ति का द्वार है, इत्यादि विचार करना । इस प्रकार श्री गुरु मुख से १२ भावनाओं का स्वरूप सुना, तथा अनशनादि ६ वा तप और प्रायश्चित्तादि ६ श्राभ्यन्तर तप का वर्शन भो सुना ॥ ७०॥
इति श्री जिननाथोक्तं स्वागमं भुवनोत्तमम् । मुनेर्यमधराख्यस्य पादमूले जगद्धिते ॥७१॥ कन्दर्प सुन्दरी सा च राजपुत्री शुभोदयात् । ज्ञान विज्ञान सम्पन्ना सदाचार विराजिता ॥७२॥ विद्यया शोभते स्मोच्चमुनेर्वामतिरुज्वला | कुलस्य दीपिके वासौ बभूवाति मनोहरा ।।७३॥