Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद]
[११५ योग्यता) यह योग्य नहीं है कि (यत्) कि (स्वेच्छया) इच्छानुसार (बरे) वर (याच्यते) याचना करे।
भावार्थ - पिताजी की प्राज्ञा सनकर मदनसुन्दरी आश्चर्यचकित हो गई । वह युक्ति और धर्म की विशे पन्ना थी। लोक मर्यादा क्या है ? धर्म की मर्यादा क्या है ? यह सब उसे सम्यक् प्रकार ज्ञात था। शास्त्रों का गम्भीर अध्ययन किया था । शास्त्र समुद्र के लिए वह विमाल सुद्ध निपिछद्र नौका थी । शास्त्र रत्नाकर की पारगामी थी । अत: महीपति-पिता के वचन सुनकर सुयुक्तियुक्त बचन कहने लगी । वह नम्रता से बोली हे देव आप यह क्या कह रहे हैं ? उनच मर्यादित थेष्टकुल में उत्पन्न होने वाली कन्याओं की यह रीति नहीं है कि स्वेच्छा से स्वयं अपना वर चुने । शीलबतो कन्या के लिए यह विरुद्ध है ।।८६-८७।। क्योंकि
यस्मैपिताददातीह स्वपुत्रोंगुरणशालिनीम् । भर्ता सएव लोकेस्मिन् न्यायोऽयं कुलयोषिताम् ॥८॥ अतः पूर्व प्रमाणं मे त्वमेवात्र विचक्षणः ।
पश्चान्मे कर्मपाकेन यद भावीह भविष्यति ॥६॥ अन्वयार्थ - (गृण शालिनीम्) नाना गुण मण्डिता (स्वपुत्रीम्) अपनी कन्या को (इह) इस लोक में (यस्मै) जिसको (पिताः) पिता (ददाति) देता है (सएव) वही (लोकेस्मिन्) इस लोक में (भती) उसका पति होता है (कुलयोषिताम ) कुलोत्पन्न कन्याओं का (अयं) यही (न्यायः) न्याय है (अतः) इसलिए (पूर्वम ) प्रथम (मे) मेरे लिए (त्वमेवात्र) यहाँ आप ही (विचक्षणः) बुद्धिमान् (प्रमाणम् ) प्रमाणभूत हैं। (पश्चात् ) इसके बाद (में) मेरे (कर्मपाकेन) कर्मोदय से (यद्) जो (इह) इस लोक में (भावी) भवितव्य, होनहार होगा वह (भविष्यति) हो जायेगा।
भावार्थ-मदनसुन्दरी ने कहा, हे पिता जी : लोक मर्यादा के अनुसार पिता का ही यह कर्तव्य है । पिता स्वयं अपनी गुणवती पुत्री को योग्य वर देता है । वही उस सुशील कन्या को प्रमाणभूत होता है । अतः प्रथम मुझे भी आप ही प्रमाण हैं। आप जिसे योग्य समझे उसे ही दे । क्योंकि पिता प्रदत्त बर ही लोक में कुलाङ्गना कन्या का पति होता है। पुनः उसका शुभाशुभ कर्म है इसी प्रकार आगे मेरे कर्मानुसार जैसा होना होगा वही हो जायेगा । अर्थात् प्रथम माता पिता योग्य वर चुनकर अपनी कन्या का विवाह कर देते हैं पुनः उसके भाग्यानुसार अच्छा बुरा फल उसे प्राप्त होता है ।।८८८६||
पुत्रि वाक्यं सुयोगं स समाकर्ण्य महीपतिः ।
मूढात्मा मानतश्चित्त कुपिते चिन्तयत्तदा ॥१०॥ अन्ययार्थ--(सुयोगम्) युक्ति पूर्ण (पुत्रिवाक्यम्) पुत्री के वचन सुनकर (समा