Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद से (समायातो) या गया है (विचार्य) यह सोचकर (स:) उसने (सत्त्वरम,) शोघ्र ही (तस्मी) उस श्रीपाल को (पुरवाहये) नगर के बाहर वन में (गृह) घर (दापयामास) दे दिया।
मावार्थ--मन्त्रि के बचन सुनकर राजा का अहंकार साकार हो उठा । उमे मदन सुन्दरी की बात याद आ गई “भाग्यानुसार'' सुख दुख होता है। वह पुत्री के प्रति द्वेष भाव रखे ही था । मन में प्रतिशोध जाग्रत हुआ । वह मूर्व अज्ञानी विचारने लगा, अच्छा है मेरा मनोरथ फल गया । इस दुष्ट कन्या के योग्य यह वर आ गया । इससे लाभ लेना चाहिए । इस प्रकार मन में विचार कर उसने अत्यन्त शीध अपने पुर के निकट वन में उसे निवास स्थानघर दे दिया । धूर्त जन अपनी धूर्तता से बाज नहीं पातं । अवसर पाते ही अपनी मूर्खता का प्रदर्शन कर ही डालते हैं ।।१०४-१०५।।
स्वयंस्वगृहमागत्य जगौमदनसुन्दरीम ।
भो सुते तव भाम्येन वरः कुष्ठी समागतः ।।१०६।। अन्वयार्थ (स्वयम्) बह प्रजापाल भूपाल स्वयं (स्वगृहमागत्य ) अपने राजमन्दिर में आकर (मदन सुन्दरीम ) मदन मुन्दरी को (जगौ) बोला (भीसुते) हे पुत्रि (तव) तुम्हारे (भाग्येन) भाग्य से (कुष्ठी) कोढी (बरः) पति (समागतः) आ गया है।
भावार्थ:-श्रीपाल को घर देकर वह राजा स्वयं अपने महल में आ गया । यहाँ मदन सुन्दरी पुत्री से कहने लगा हे बेटो ! तुम्हारे पुण्य से तेरा पति-वर पाया है । तुम्हारे भाग्य से वह कोढी है तुम्हारा उसी कोही से पाणिग्रहण होगा उसे ही वर समझो ।।१०६।।
तन्निशम्य सुता प्राह भोपितः शृण तावरात् ।
यस्तुभ्यं रोचते देवः स मे गाढं मनोम्बजः ॥१०७॥
अन्वयार्थ (तन्निशम्य) उस पिता के बचन को सुनकर (सुता) पुत्री (प्राह) बोली (भोपितः) हे पिताजी (तुम्यम् ) आपके लिए (यः) जो (रोचते) अच्छा लगता है (देव) हे राजन् (स) वह (मे) मेरे लिए (गाडं) अत्यन्त (मनोम्बुजः) कामदेव स्वरूप है ।
भावार्थ-पिता के वचन सुनकर सुझानी, धीर बोर कन्या मदनसुन्दरी ने विनय पूर्वक पिताजी को उत्तर दिया । सम्यक्त्व शालिनी को भय नहीं होता है । अतः बोली हे ! पिताजी, आपको जो रूचिकर है वही मुझे योग्य वर है वह जैसा भी हो मेरे लिए अम्बुन कमल फूल-कामदेव स्वरूप है ।।१०७।।
पुनर्जनमतेवक्षा जगौ मदनसुन्दरी । जन्तूनां कर्मणा सर्वं भवेदेव शुभाशुभम् ।।१०।।