Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद विवाहानन्तरं तत्र भत्तः पाणिविमोचने । प्रणामं कुर्वती पुत्री सती कल्पलतामिव ॥१२३॥ पश्यन् राजास्वचित्ते च पश्चात्तापेन तापितः ।
हा मया कि कृतं कर्मसुतायाः कष्टकारणम् ॥१२४।। अन्वयार्थ .... (विवाहानन्तरम्) विवाह विधि सम्पन्न होने पर (भ: पति का (पाणिविमोचने) कर विमोचन हो जाने पर (कल्पलताम) कल्पवल्ली (इव) समान (सती) भीलवती (पुत्री) बेटी (प्रणाम) पिता को प्रणाम (कुर्वतीम् ) करती हुवी को (पश्यन् । देखता हुआ (राजा) भूपति (स्वचित्ते) अपने हृदय में (पश्चात्तापेन) पश्चात्ताप की ज्वाला से (तापितः) जलने लगा (च) और विचारने लगा (हा, कष्ट) महादुःत्र है (सुताया:) पुत्री के (कष्टकारणम) पीडा के कारण भूत (कर्म) यह कार्य (मया) मेरे द्वारा (कि) क्या (कुतम) कर दिया गया।
भावार्थ-राजा की आज्ञानुसार, विद्वान पंडितों ने विवाह की सकल विधिविधान विधिवत् सम्पन्न कर दिये । अन्त में पति को कर विमोचन विधि भी हो गई। इसके बाद मदनसुन्दरी ने विनयपूर्वक पिता को नमस्कार किया। निर्विकार-निर्दोष पुत्री के सरलमुखपङ्कज की ओर दृष्टि पडते ही राजा का हृदय कांप गया। वह कि वार्तव्य विमूढ सा रह गया । उसके द्वारा किया गया अनर्थ मानों उसे करनी का फल चखाने आ खडा हुआ । भुपाल का चित्त पश्चात्ताप की ज्वाला से अलसने लगा । दुराग्रह की विडम्बना उसके सामने नाचने लगी । उसको प्रतीत हुआ कि उसने कितनी भयङ्कर भूल की है। वह स्वयं को कोसने लगा, धिक्कारने लगा। मन ही मन सोचने लगा, हाय-हाय यह भयङ्कर दुष्कर्म मेरे द्वारा कैसे किया गया ? इसका परिणाम मेरी दुलारी सुकुमारी को कितना भयप्रद, दुखद, पीडाकारक होगा । मैंने स्वयं अपने हाथों से अपनी नयन दुलारी को यह कष्टकारक कार्य उत्पन्न कर दिया अब क्या होगा ? कैसे सहेगी यह बाला ? क्या करूं ? कहाँ मैं और कहाँ मेरा यह दुष्कर्म ? ।।१२३।।१२४॥
क्वेयं कन्या स्वरूपेण बिडम्बित सुराङ्गना।
क्वायंवरो गलत्कुष्टमण्डितो निज कर्मणा ।।१२।।
अन्वयार्थ-(स्वरूपेण) अपने सौन्दर्य से (विडम्बित, सगङ्गना) देवाङ्गना को भी तिरस्कृत करने बाली (इयं) यह (कन्या) कन्या (क्व) कहाँ ? और (निजकर्मणा) अपने पापकर्म द्वारा (गलत्कुष्टमण्डितः) गलित कुष्ट से सहित (अयं) यह (वरः) वर (क्व) कहाँ ?
भावार्थ--राजा प्रजापाल विलाप करता हुआ कहने लगा, हे भगवन् ! मैंने क्या किया ? अपने अनिंद्य सौन्दर्य से अप्सरा, रति को भी पराभूत करने वाली कन्या कहाँ और अपने दुष्कर्म के उदय से गलित कुष्ट से लत-पथ यह वर कहाँ ? अर्थात् यह मदनसुन्दरी तो