Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ]
कुसंगतिवशात्पापात् सा कन्यासुरसुन्दरी ।
ree बुद्धिस्तदा जाताहाकष्टं दुष्ट सङ्गतिः ॥५७॥
अन्वयार्थ - ( पापात् ) पाप से ( कुसङ्गतिवशात् ) खोटी संगति से (सा) वह (कन्यासुर सुन्दरी) सुरसुन्दरी राजकुमारी ( तदा) तब ( नष्टबुद्धि ) बुद्धि विहीन ( जाता ) हो गई (हा ) खेद हैं (दुष्ट) यूर्जन का ( सङ्गति) सहवास ( कष्टं ) दुख रूप ही होता है ।
भावार्थ- पाप और कुसङ्गति के कारण वह राजकुमारी सुर सुन्दरी बुद्धि विवेक विहीन हो गई। प्राचार्य वेद प्रकट करते हैं कि दुर्जन की संङ्गति कितनी बुरी होती है ?
द्वितीया सा विशुद्धात्मासतीमदमसुन्दरी ।
निर्जिता निजरूपेण यथा मदनसुन्दरी ॥ ५८ ॥
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अन्वयार्थ - - ( द्वितीया ) दूसरी कन्या ( विशुद्धात्मा) विशुद्ध पवित्रात्मा (सतो ) शीलवती ( मदनसुन्दरी) मदनसुन्दरी कुमारी थी उसने (निजरूपेण) अपने सौन्दर्य से ( यथा ) जैसे मानों (मदन सुन्दरी) कामदेव की पत्नी रति को (निर्जिता ) जीत लिया था ।
भावार्थ -- प्रजापाल राजा की द्वितीय कन्या का नाम मदन सुन्दरी (मैनासुन्दरी ) था । वह अत्यन्त पवित्रात्मा थी स्वच्छ मन वाली थी । रूप सौन्द्रयें में अद्वितीय सुन्दरी थी । अपने लावण्य से रति को भी उसने लज्जित कर दिया था। सौन्दर्य का उपयोग विद्या से है । मदनसुन्दरी रूप और गुण दोनों से ही अनुपम थी ।
स्वयम्भूतिलकं नामधामिणां तिलकोपमम् ।
गत्वा जिनालयं भक्त्या सा पापविलयंमुदा ।। ५६॥
अन्वयार्थ -- (सा) वह मदनसुन्दरी ( पापविलयम् ) पापों को नाश करने वाले ( स्वयम्भुतिलकं नाम ) स्वयम्भु तिलक नाम के ( धर्मिणां तिलकोपमम्) धर्मात्माओं के तिलक स्वरूप ( जिनालयं ) जिन मन्दिर को ( मुदा ) आनन्द से ( भक्तया ) परमभक्ति से ( गत्वा )
जाकर ।
धौत वस्त्रादिकंधूत्वा जलगंधाक्षतादिभिः । नानापुष्पवताद्यैश्च समभ्यर्च्य जिनाधिपम् ॥ ६०॥ स्तुत्वानत्वा पुनर्वाला मुनिंयमधराह्यम् ।
नमस्कृत्य यमधरा पार्श्व धर्मं सुश्राव शर्मदम् ॥ ६१ ॥
अन्वयार्थ -- ( धौत वस्त्रादिकं ) सफेद जरी के वस्त्र एवं सुन्दर श्राभूषण ( धृत्वा ) धारण कर ( जलगन्धा क्षतादिभिः नानापुष्पशतार्थः च) जल चन्दन अक्षत, आदि और अनेक