Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद
ऋद्धियाँ उत्तरोत्तर बढ़ती जाती हैं उसी प्रकार यहाँ को जनता के त्याग-संतोषमय जीवन के प्रभाव से पुण्यवृद्धि के साथ ये सभी सम्पत्तियाँ ब तो जातो थों |३१ ३२३३]
रूपादिसार सम्पत्यानरा व सुरसत्तमाः।
नार्यों निरन्तर भौगैः जयन्तिस्म सुराङ्गनाः ॥३४॥
अन्वयार्थ-उस नगरी में (नरा) भव्य पुण्डरीक पुरुष (रूपादिसार सम्पत्या) रूप लावण्य, विद्या, गुण कलादि द्वारा (ब) तथा (नार्यो) नारिया (निरन्तरं) सतत (भौगैः) उत्तमोत्तम भोगों द्वारा (सुरसत्तमाः) श्रेष्ठ देवा को तथा (सुराङ्गनाः) देवाङ्गनाओं को (जयन्तिस्म) जीतती थीं।
___ भावार्थ---उस उज्जयिनी पुरी में प्रस्ष क्या और शीलबन्ती नारियाँ क्या सभी रूप लावण्य से मण्डित थे। और उसी प्रकार शीलादि गुणों से भी विभूषित थे । पुरुषजन अपने सौन्दर्यादि से उत्तम देवों को भी तिरस्कृत करते थे यार नारिंगों का तो ना ही क्या वे अपने मनोरम स्वाभाविक तुषमा से मुराङ्गनाओं एवं अप्सराओं को भी पराजित करने वाली थों ।।३४||
यत्र श्रीमज्जिनेद्राणां सुप्रासादाबनादिषु ।
लसत्काञ्चन सद्रत्न निर्मिताः प्रतिमान्विताः ।।३५॥ अन्वयार्थ-[यत्र] जहाँ पर कि विनादिषु ] वन उपवनों में सर्वत्र लमत्काञ्चन | तपाये हुए सुवर्ण का कान्निवाले (सद्रननिर्मिता:) श्रेष्ठ उत्तम रत्नों से निमित (प्रतिमान्विताः) उत्तमोत्तम प्रतिमाओं से युक्त (श्रो मज्जिनेन्द्राणां) थी जिनेन्द्र भगवान के (सुप्रासादाः) श्रेष्ठ मन्दिर थे तथा---
कनक काञ्चन कुम्भश्च ध्वजाद्यैः परिशोभिताः । नित्यं वादिननादौद्य घण्टावृन्दरलंकृताः ॥३६॥ येषां दर्शनमात्रेण पापं यान्तीति तत्क्षणात् ।
भास्करेणेवभव्यानां तत्कालं सन्निजंतमः ॥३७॥ अन्वयार्थ ये जिनेन्द्र मन्दिर (कानककाञ्चन कुम्भः) सुवर्ग के चमवते हए कलशों से (च) और (ध्वजावैः) नाना प्रकार ताकापों से (नित्यं) निरन्तर (परिशोभिताः) सुशोभित तथा (घन्टावृन्दैः) घन्टा नादों एवं (वादिननादोघः) नाना प्रकार के याजों की सुमधुर, ललित ध्वनियों से (अलंकृता:) शोभायमान थे। (येषाम् ) जिनके (दर्शन मात्रण) दर्शन मात्र से (इव) जिस प्रकार (भास्करेगा) सूर्य के (सन्निजम्) सानिध्य से उत्पन्न प्रकाश से (तमः) अन्धकार (तत्कालं) शीघ्र ही (यान्ति) नष्ट हो जाते हैं (तथा) उसी प्रकार