Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद ] (परिवारताः। कुटुम्ब सहित (सौख्यम! सूख पूर्वक (संवसन्तिस्म) निवास करते हैं ।
भावार्थ--उस उज्जयनी के भव्यजन श्रावक श्राविकाएँ पुण्योदय से प्राप्त धन धान्य, मनमोहक प्राज्ञाकारी कुटुम्ब सहित सुखपूर्वक जीवन यापन करते थे । सर्व प्रकार पारिवारिक सुख उन्हें प्राप्त था । अर्थात् प्राज्ञाकारी पुन पातिव्रत' धर्मशील सम्पन्न पत्नी, वासल्यमयी जननी विश्वस्त मित्र श्रादि अनुकूल होने से सभी सुख शान्ति से निवास करते थे ॥३०।।
यदा पणेष्षु सर्वत्र मरिग मुक्ता फलादयः । नाना सुवर्ण वस्त्रोरुपट्ट कूलादि सम्पदा ॥२६॥ चन्दनागुरुकर्पूर काश्मीरला लवणकः । अन्यरष्टा दशप्रायर्धान्यः स्नेहादिभिस्सनम् ॥३२॥ सदैव सज्जनभुक्त्वादत्वा नीताश्च वारिगजः । तथापि वृद्धितां प्रापुमुनीनामृद्धयो यथा ।।३३।। त्रिमि कुलिकम्
' अन्वयार्थ-(पापणेषु) दूकानों में (सर्वत्र) प्रत्येक जगह (मणिमुक्ताफलादय) मरिंग मोती, मरिशक्य नीलम, बैडूर्य प्रादि रत्न (यथा) जिस प्रकार थे उसी प्रकार (नाना) अनेक प्रकार के (सुवर्णवस्त्र) सोने की जरी प्रादि के वस्त्र (उरु) विशाल (पट्टकूल) रेशमी वस्त्र (पादि) इत्यादि (सम्पदाः) सम्पत्तियाँ (चन्दनागुरुकप्पुर काश्मीर) चन्दन अगर-तगर कपूर मलयागिर चन्दन (ऐला) इलायची (लवङ्गकै) लोग आदि द्रव्य भी थे। तथा (स्नेहादिसम तलादि के साथ (अन्यरष्टादशप्रायः अठारह प्रकार के (धान्यः धान्यों से (भता भी बाजार भरा हुआ था। (सज्जनैः) वहाँ के निवासी सत्पुरुषों द्वारा (सदैव) सतत (भुक्त्वादत्या) भोगकर, दान देकर (वाणिजै:) वरिणकों से (नीताः) खरीद कर ले जाये गये (तथापि) तो भी (यथा) जिस प्रकार (मुनीनां) मुनियों को (ऋद्धयः) ऋद्धियाँ वृद्धिंगत होती हैं (तथा) उसी प्रकार (वद्धिता) वे वृद्धि को [प्रापुः] प्राप्त हुयीं।
भावार्थ-उम उज्जयनी का बाजार हीरा मोती मारिशक, पन्ना, नीलम, पुखराज बज्रहीरा, स्फटिक मरिण रस्न आदि से भरा था। प्रत्येक दुकान पर नवरत्नों के दर पाये जाते थे । जौहरी बाजार जिस प्रकार वैडूर्यादि मरिणयों की खान जैसा प्रतीत होता था उसी प्रकार बजाजा अनेक प्रकार के जरी गोटा, किनारी, सुनहले रूपहले वस्त्रों का भण्डार था । सवर्ण के वस्त्र रेशमी वस्त्र रंग विरङ्ग भरे पड़े थे। दुसरी मोर रक्ताजन, अगूरू, तगर, कपर केशर, काश्मीर इलायची लवङ्ग प्रादि सुगन्धित द्रव्यों से भरी दुकानें थीं । अठारह प्रकार के धान्य - गेहूँ, जौ, चना, मटर, ज्वार, बाजरा, अरहर, मूग मोठ, उडद, ग्वार, तिल, मसूर,
आदि धान्य भरे पड़े थे । तथा साथ ही घी, तल, हींग आदि भी प्रभूत थे। वारिणकजननिरन्तर विक्री करते उपभोक्ता सदा खरीदते, बान करते, परन्तु ये समस्त सामग्री उत्तरोतर वृद्धि को प्राप्त होती रहती थीं । प्राचार्य काहते हैं कि जिस प्रकार तपस्वी ऋषिजनों की