Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र द्वितीय परिच्छेद |
से भरे हुए (सुखास्पदे) विभिन्न इन्द्रिय सुखों का स्थान स्वरूप (अवन्तिदेशे तु) निश्चय से उस अवन्ति देश में (गरोयसी) महत्त्वशाली (उज्जयनी नाम्ना) उज्जयनी नाम की (नगरी) पुरी (अभूत) थी।
भावार्थ--उपर्युक्त वर्णन से सुख सम्पदा ऐश्वर्यशाली उस अवन्ति देश में उज्जयनी नाम की नगरी थी। यह पुरी भी अपने कला कौशल, गुरण धर्म से महत्वपूर्ण थी । तथा सभी इन्द्रियज सुखों की खान स्वरूपा थी।
या विशुद्धमहातङ्ग प्रकारेण परिष्कृता।
सारेजे स्व यशोराशिरिवोचैः परिवेष्ठिता ॥२५॥ अन्वयार्थ (या) जो अर्थात उज्जयनीपुरी (विशुद्धमहातुङ्ग प्राकारेण) उत्तम और उन्नत परकोटा द्वारा (परिवेष्ठितो) घिरी हुयी थी (स्व) अपनी (यशोराशिखि) यशकीति की राशि के समान (उच्चैः) विशेषरूप से (परिष्कृता) उज्वल (सा) बह पुरी (रेजे) शोभित थी। ॥२५॥
महाद्वाराणि चत्वारि रेजिरेरत्न तोरणः ।
सत्पुरी वनितायाश्च वदनानीवदिक्षुवै ॥२६॥ अन्वयार्य--(वनिताया: वदनानि इब) सुन्दर स्त्रियों के मुख के समान (रत्नतोरणोः) रत्नमय तोरण द्वारों से युक्त (महाद्वाराणि चत्वारि) चार महा द्वारों से (तत्पुरी) वह उज्जयनी नगरी (2) निश्चय से (दिक्षु) सभी दिशाओं में (रेजिरे) सुशोभित थी।
भावार्थ-उस उज्जयनी के चतुदिक्षु चारों दिशाओं में चार गोपुर द्वार थे, इनमें रत्नों के तोरण लटक रहे थे। ये गोपर द्वार ऐसे प्रतीत होते थे मानों इस उज्जयनी रूपी मारी के मुख पङ्कज ही हैं । इन द्वारों से युक्त यह नगरी महाशोभा को धारण करने वाली थी ।
स्वच्छतोयभूताखाता विकसत्पद्मराजिता ।
सा विशाला विशालायास्ततस्यास्सा इव संवभौ ॥२७॥
अन्वयार्थ--(तस्या) उस (विशालायाः) विशाल उज्जयनी पुरी की (विशाला) विस्तृत (स्वच्छतोयभता) निर्मल जल से भरी (विकसत् पराजिता) खिले हुए कमलों से सुसज्जित (सा) वह (खाता) खाई (दिवि) दिन में प्रति शोभायमान थी।
भावार्थ—स्वयं उज्जयनी विशाल नगरी थी उसके चारों ओर विस्तृत खाई थी। वह खातिका स्वच्छ निर्मल जल से परिपूरित थी। उसमें सुन्दर राजीव (कमल) खिले हुए थे। दिन में उस खाई को प्रोभा अद्वितीय हो जाती थी। क्योंकि सरोरुह स्वभाव से सूर्योदय