Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
[ ५५ (उत्तु गसिंहासनम् ) ऊँचे सिंहासन पर (अधिष्ठितम् ) विराजमान (सेवागत) सेवाभक्ति से लगाये गये (त्रिधाचन्द्राकार छत्रत्रय) तीनप्रकार के चन्द्राकार तीन छत्रों से (अन्वितम्) सहित (वीज्यमाननिर्भरोपमैं:) ढुलते हुए निर्मल झरने के समान (चतुषष्ठी चामरैः अन्वितम्) चौसठ चामरों से सहित (सर्वसंदेह विध्वंसी दिव्यध्वनि विजितम् ) सर्व संदेह का निवारण करने वाली दिव्यध्वनि से शोभायमान (हतशोक-महाशोकतरसंचित) भव्य जीवों के सम्पूर्ण शोवा को नष्ट कर दिया है जिसने ऐसे महा अशोक वृक्ष के नीचे विराजमान (विग्रहम्) उत्तम परम औदारिक शरीरवाले तथा (यत्र भव्याः स्वकीयं सप्तभवं प्रपश्यन्ति) जहाँ भव्य जीव अपने सात भवों को देखते हैं ऐसे (लसत्) शोभायमान (कोटिसूर्यप्रभास्पद्धि) करोड़ों सूर्य की प्रभा से स्पर्धा करने वाले अर्थात् उससे भी अधिक प्रभा को धारण करने वाले (भामण्डलादिकम् ) भामण्डल आदि जहाँ मौजूद हैं तथा (पुष्पवृष्टिसमन्वितम्) जो द्विव्यपुष्प वृष्टि से समन्वित हैं (मोहारिविजयोत्पन्न ) मोह रूप शत्रु को जीतने से उत्पन्न महाविजय को घोषित करने वाले हैं तथा (नन्ददेव ! जयेत्) हे परमानन्दकारी प्रभु ! आपका शासन जयवन्त रहे ऐसा (उच्चैः) उतन्त्र स्वर से कहने वाले उन (कोटिभिः देवदुन्दुभिसमुत्पन्नमहानादैः) करोड़ों देव दुन्दुभि बाजों से उत्पन्न महानाद गम्भीर निनाद से (गजिताखिलभूतलम् ) गुज्जित है अखिल भूमण्डल जहाँ और (प्रसिद्ध :) प्रसिद्ध (चतुस्त्रिंशमहाश्चयैः) चौतीस अतिशयों रूप आश्चर्यों से (रञ्जित) पुजित है-अतिशयता को प्राप्त हैं तथा (गणदिशभिः) द्वादश सभाओं से (निर्ग्रन्थाभिः) निर्ग्रन्थ मुनिजनों से (प्रावृतम्) घिरे रहते हैं (ज्ञानदर्शनवीर्यादि) अन्नत ज्ञान, अनन्त दर्शन अनन्त वीर्य आदि रूप (व्यक्तानन्त चतुष्टयम्) अनन्त चतुष्टय रूप शक्ति जिनकी व्यक्त हो चुकी है ऐसे तथा (इन्द्रनागेन्द्र चन्द्रार्क खेचराधः) देवेन्द्र, नागेन्द्र, ज्योतिषेन्द्र सूर्य चन्द्र और विद्याधरों से (सचितम्) संपूजित (नानानरेन्द्रसंदोह समाराधित) अनेक चक्रवर्तियों के समूह से समाराधित हैं (पङ्कजम्) चरणकमल जिनके ऐसे श्री (केवल ज्ञान
रम्) केवल ज्ञान दिवाकर (तं वीरजिनं विलोक्य) उभ वीर प्रभ को देखकर (विशिष्टाष्टमहा द्रव्यः) उत्तम अष्टमहाद्रव्यों से (जिनेश्वरं समय) जिनेन्द्रप्रभु की पूजाकर (महाभक्तिपरायणः) जिनभक्ति में अतिप्रवीण (राजा) राजा श्रेणिक महाराज ने (संस्तुति) [भगवान की] उत्तम स्तुति (चकार) की।
भावार्थ-प्रजा सहित श्रेणिक महाराज प्रथम भगवान की तीन परिक्रमा करते हैं फिर मानस्थम्भ आदि से पवित्रीकृत भूतल पर स्थित श्री वीर प्रभु के समवशरण में प्रवेश करते हैं । अथानन्तर अरहन्त प्रभु के ४६ मूल गुणों का समुल्लेख करते हुए धी बीर प्रभु की स्तुति करते हैं । ३४ अतिशयों, ८ प्रातिहार्य और ४ अनन्त चतुष्टय इन ४६ गुणों से समन्वित श्री अरहन्त देव ही सच्चे देव हैं तथा भव्य जीवों को उत्तम अक्षय सुख को प्राप्त कराने में समर्थ हैं । यहाँ ४६ मूलगुणों का संक्षिप्त परिज्ञान आवश्यक है अत: उनका निर्देश संक्षेप में यहाँ करते हैं । सर्व प्रथम ३४ अतिशयों को बताते हैं-१० जन्म के अतिशय, १० केवलज्ञान के अतिशय और १४ देवकृत अतिशय हैं।
जन्म के १० अतिशय निम्नलिखित हैं—(१) कभी शरीर में पसीना न आना (२) मलमूत्र नहीं होना (३) दूध के समान सफेद रुधिर का होना (४) समचतुरस्र संस्थान का