Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रोपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद अन्वयार्थ--(प्रभो) हे भगवन् ! (ते भक्तिः) अापकी भक्ति (कल्पलता इब) कल्पलता के समान (उच्चः) महान् (सौख्यदायिनी) स्वर्गमोक्षादि के सुख को देने वाली है (आधिव्याधिविनाशिनी) मानसिक और शारीरिक कष्टों को नष्ट करने बानी है। (प्रासंसार) संसार का नाश होने पर्यन्त (सुधी: भूयात) सम्यक् प्रकार वह सुज्ञान प्रकाशक भक्ति हमारे हृदय में स्थिर होवे ।
इत्यादि स्तुति वाक्यौघः संस्तुव्य जिननायकम् ।
भूमौ न्यस्त शिरोदेशो ननाम चरणद्वयम् ॥१२॥ अन्वयार्थ-(इत्यादि) उपयुक्त प्रकार से श्रेणिक महाराज (स्तुतिवाक्यौ धैः ) अनेका प्रकार के स्तुति , याच तमूह सजनमायाम् न् जिनेन्द्र भगवान महावीर स्वामी की (संस्तुत्य) स्तुति करके (शिरोदेशो) मस्तक (भूमौन्यस्त) पृथ्वी पर टेक कर (चरणद्वयम्) चरणकमलों को (ननाम) नमस्कार किया।
भावार्थ-भक्ति, आनन्द और उत्साह से विभोर वह श्रेणिक महाराज महागद्गद् स्वर में, समवशरण में सिंहासन स चतुरंगुल अधर विराजित छत्रत्रय सहित, आष्टमहाप्रातिहार्य मण्डित तथा चौसठ चामर जिन पर दुर रहे हैं ऐसे महावीर प्रभु की स्तुति करने लगा-हे प्रभो ! आप हो संसार में सच्चे देव हैं क्योंकि अन्य हरिहरादि प्रारम्भ परिग्रह और कषायमल से लिप्त हैं, वे यथार्थ देब नहीं हो सकते हैं । हे प्रभो ! आप चिन्तामणि रत्न के समान भक्तों को चिन्तित फल प्रदान करने में समर्थ हैं क्योंकि आप वीतरागी हैं, रागढेप विहीन हैं । जो समताभादी होता है, वही सबको समान रूप से सुखी तृप्त कर सकता है। हे भगवन ! मुमुक्ष भव्य प्राणियों को आप परमानन्दमुक्ति श्री का अक्षय सुम्न प्रदान करने में समर्थ निमित्त कारण हैं। हे जगत के कारण बन्धु पाप की जय हो। सांसारिक बन्ध वह होता है जो जीव को, स्वार्थवश, विषय भोगों में फंसाने का प्रयत्न करता है विवाह आदि कार्यों में समन्वित होकर प्रेम प्रदर्शित करता है किन्तु आप निष्कारण भवदुःखनाशक परम बन्धु है । आपका उपदेश अमृत महश जग संताप को दूर करता है ग्रतः पाप ही साव हितषी बन्धु हैं। प्राप सर्वज्ञ हैं "सर्व जानातोति सर्वज्ञः जो त्रैलोक्यवर्ती सकल पदार्थों को उनकी अनन्त पर्यायों से सहित युगपत् जानने में समर्थ है वही सर्वज्ञ कहलाता है । हे भगवन् अापके केवलज्ञान रूपी दर्पण में चराचर समस्त पदार्थ एक साथ अपनो अनन्तपर्यायों सहित झलकते रहते है। अतः प्राप सर्वन हैं आपकी जय हो जय हो, सक्ष जयशील हो । संसारो प्राणियों के शरीर जन्य रोगों बीमारियों को कुशल वैद्य अपनी योग्य अनुकूल औषधि से दूर कर देता है पर आप तो संसार जन्य रोग के कारणीभूत जन्म, जरा (बुहापा) और मरण को ही नाथा करने वाले हो अतः सर्वोत्तम कुशल वैद्य आप ही हो । हे जगत्पालक, संकट हारक, भव्यजनोद्धारक ग्राप जयवन्त रहें यह आपका जिन धर्म संसार में बर्तता रहे ।
हे जिनाधिप ! आप करूणा के अगाध सिन्धु हैं, प्रामीमात्र के रक्षक परम दयालु