Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद |
[ ५६ (भव्यदेहिनाम्) भव्यजीवों के (परमानन्दकारणं) परम आनन्द उत्पन्न करने में निमित्त कारण स्वरूप (त्वं) आप (जय) सदैव जयवन्त होवें ।
जय त्वं श्री जगदबन्धो जयसर्वज्ञ सर्ववित ।
जय जन्मजरातङ्कनिवारण भिषग्वरः ॥१२३॥ अन्वयार्थ -(श्री जगद्बन्धो) उभय लक्ष्मी के अधिष्ठाता हे संसार के बन्धु ! मित्र ! (सर्वज्ञ) हे सर्वतत्त्व ज्ञाता (सर्बवित्) समस्त लोकालोक को युगपत् जानने वाले केवलज्ञान के धारी प्रभो (त्वं) आप (जय) जयवन्त हो (जन्मजरातहनिवारण भिषग्वर जन्म, बदा और मरण रूपी रोग को नाश करने वाले हे धेष्ठतम वेद्य (जय) आप जयवन्त होइये।
जय त्वं सर्वजन्तूनां करुणाकरसागर ।
वीतराग जगज्ज्योतियोलिताखिनभूतले ।।१२।।
अन्वयार्थ--(सर्वजन्तुनाकरुणाकरसागर) संसारताप से पीडित सर्वप्राणियों को दुःखनिवारक आप करुणा के सागर सिन्धु हैं (जगज्ज्योतिद्योलितखिलभूतले) जगत् के प्रकाशित करने वाले केवल ज्ञान ज्योति स्वरूप (त्वं.) आप (जय) सदेव जयवन्त होवे ।
जयवीर महावीर सन्मते वर्द्धमान भाक् ।
महत्यादिमहावीर जय त्वं धर्मनायक ॥१२५।।
अन्वयार्थ ---(वीर महावीरसन्मतेबर्द्धमानः) हे वीर, हे महाबीर, हे सन्मति है, बर्द्धमान (महात्यादिमहावीर) हे अतिवीर (भा) पाँच नामी से विख्यात (धर्मनायक) हे धर्म के अधिपति नेता (त्वं) अाप (जय) जयवन्त हो ।
स्थानिस्तावत्तमस्तोमो यावन्नोदयते रविः ।
तावज्जनो जडो दुःखी यावत् त्वां नाश्रितस्त्रिधा ॥१२६।।
अन्वयार्थ -(स्वामिन् ! )हे स्वामी ! (तमस्तोमो)घनघोर मघन अन्धकार (तावत् सब तक हो रहता है (यावत्) जव तक कि (रविः) सूर्य (नोदयने) उदय को प्राप्त नहीं होता है । (तथा) उसी प्रकार (जनो) संसारी भव्य जीव (तावत्) तब तक ही (जडो दुःखी) मिथ्यात्व अन्धकार से दुःखी रहता है (यावत) जब तक कि वह (त्रिधा) त्रियोग-मन वचन काय से (त्वां) आपको (नाधित्त) प्राथय नहीं किया अर्थात् प्रापकी शरण में नहीं आया ।
प्रभो कल्पलतेवोच्चभक्तिस्तेसोख्यदायिनी । प्रासंसारं सुधीभू यावाधिव्याधिविनाशिनी ॥१२७।।