Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद |
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हैं। मोहान्धकार को नाश करने वाले हैं। विमल सम्यग्ज्ञान ज्योति का प्रकाश कर भव्यों को सबोध प्रदान करने वाले हैं आपकी ज्ञान गरिमा से विश्व ज्योतिर्भव हो रहा है । हे ज्योति पुञ्ज ! आप सदैव जयवन्त रहें । हे वीतरागी जिन ! आप किसी के द्वारा की गई निन्दा स्तुति से रुष्ट तुष्ट नहीं होते हैं । स्तुति करने वाले से प्रसन्न और निन्दा करने वाले से अप्रसन्न नहीं होते । प्रभो ! आप राग द्वेष विहीन हैं अतः सच्चे वीतरागी आप ही हैं। विषय कषायों के जाल में फँसे हरिहर आदि वीतरागी नहीं हैं तथा वीतरागता के बिना हितोपदेशी और सर्वज्ञ भी नहीं हो सकते हैं। हे वीर प्रभो ! संसार में आपके पांच नाम विख्यात | प्रथम आप बर्द्धमान कहलाये क्योंकि गर्भावतरण के पूर्ण ही माता-पिता, देश, समाज तथा प्रजामणों में धन, जन, सुख, शान्ति धर्म आदि की वृद्धि हुई । श्रत: वर्द्धनशील आपका वर्द्धमान नाम सार्थक है । आपने वाल्यकाल में ही 'संवर' देव को बालसुलभ कीडा में परास्त किया, अतः महावीर कहलाये । विजय और संजय नामक दो चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों को किसी तत्वार्थ के विषय में संदेह उत्पन्न हुआ अकस्मात् उन्हें आपका दर्शन हो गया, हे प्रभो ! गृहस्थ अवस्था में स्थित भी आपके दर्शन मात्र से वे निःसन्देह हो गये और आपका 'सन्मति' यह नाम स्थापित कर वन विहार कर गये जन्माभिषेक के समय शचिपति को शङ्का हुई कि कलश तो विशाल है और भगवान बालक हैं, लघुकाय वाले हैं अतः अभिषेक किस प्रकार करू ? कहीं इन्हें कष्ट न हो जाय । तत्क्षण आपने अपने अवधिज्ञान से इन्द्र के संदेह को ज्ञात कर अपने दाहिने चरण के अंगूठे से समेरु पर्वत को कम्पित कर क्षणमात्र में उसका संदेह निवारण कर दिया और प्रतिबोर नाम पाया । इस प्रकार आप पाँच नामों से विश्रुत जयशील रहें । हे नाथ! आपकी जय हो ! जय हो जय हो ! आप धर्म के अधिनायक हैं, धुरा हैं, आप सतत् जयवन्त हो ।
आप मोहान्धकार को नष्ट करने के लिये ज्ञान भानु हैं। जिस प्रकार सूर्योदय होते ही भूतल पर व्याप्त सघन अन्धकार क्षणमात्र में विलीन हो जाता है । उसी प्रकार आपने दर्शनमात्र से भव्य जीवों के अनादि मिथ्यात्व - मोहरूपी अन्धकार पटल क्षणमात्र में आपके दर्शन से विलीन हो जाता है अर्थात् सम्यग्दर्शन की प्राप्ति हो जाती है । संसारी जीव तभी तक दुःखी रहते हैं जब तक आपके चरण कमलों की रज उन्हें प्राप्त नहीं होती है अर्थात् जो भव्य प्राणी शुद्ध मन, वचन, काय से आपके चरणारविन्द का आश्रय लेते हैं उनके समस्त संकट विलीन हो जाते हैं। वह अपने अभीप्सित फल को अनायास प्राप्त कर लेता है । जिन भक्ति में आधि व्याधि आदि समस्त विपत्तियों को दूर करने की शक्ति विद्यमान है। गुजरात कहावत है- "भक्ति थी मुक्ति सहल छै:" हे भाई बहनो! भक्ति से मुक्ति सरलता से प्राप्त हो जाती है । इस प्रकार महाराज श्रेणिक ने अनेकों शुभ स्तोत्रां से श्री वीर प्रभु की स्तुती कर भूमि पर मस्तक टेक कर भगवान के चरण कमलद्वय को अत्यन्त भक्ति से नमस्कार किया । अपलक नयनों से जिनेश्वर की अनुपम छवि को निहार-विहार कर श्रेणिक महाराज ने अपने को धन्य धन्य अनुभव किया तथा शरम्बार नमस्कार किया ।।१२१ से १२८ ।।
में
ततः श्रीगौतमस्वामीप्रमुख्यान्मुनिपुङ्गवान् ।
नत्वा स्तुत्या स्थितो भूयो नरकोष्ठेति भक्तिमान् ॥ १२६ ॥