Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
सरलार्थ - १२ कोठों में उपस्थित देव मनुष्य और तिर्यञ्चों को भगवान् की दिव्य ध्वनि सुनकर परमानन्द हुआ । ठीक ही है भगवान् की वचनावली किसको हर्षित नहीं करती ? सबको सुख उपजाती ही है ।
भावार्थ - भगवान् की दिव्य-ध्वनि निरक्षर होती है, समस्त श्रोताओं के करपुट में पहुँचकर तद्-तद् भाषा में परिणत हो जाती है । यह अतिशय विशेष है इसलिए जिनवाणी सर्वोपकारिणी कही है । वह प्राणी मात्र को सुख को कारण क्यों नहीं होगी ? होती हैं । अस्तु वर्द्धमान प्रभु की सभा में उपस्थित सर्वजीव परमानन्द प्राप्त कर अत्यन्त सुखी हुए।
श्रथ श्री रणभूपः समुत्थाय कृताञ्जलिः । वर्द्धमान जिनाधीशं पपृच्छ विनयानतः ॥ १५७॥
अन्वयार्थ - ( अथ ) इसके बाद (भूपः ) राजा ( श्री श्रेणिक : ) लक्ष्मीपति श्रेणिक महाराज ( कृताञ्जलिः) हाथ जोड़कर ( समुत्थाय ) उठकर (विनयावनत) विनय से नत्रीभूत हो (जिनाधीश ) जिनेन्द्र भगवान् ( वर्द्धमान महावीर भगवान् को ( पपृच्छ ) पूछा - प्रश्न किया।
सरलार्थ - श्री प्रभु के उपदेश हो जाने पर महाराज श्रेणिक ने विनय पूर्वक हाथ जोड़कर खड़े होकर, नम्रीभूत हो पूछा । क्या ?
विधाय प्ररपति भक्तया सर्वभृत्य हिताय च ।
सिद्ध चक्र व्रतं स्वामिन् साच्चैनं भुवनच्चितम् ।। १५८।।
केन वा विहितं देव कथं वा क्रियते च तत् ।
किं फलं तस्य तत्सर्व स्वामिस्त्वं वक्तुमर्हसि ।। १५६ ॥
अन्वयार्थ (भक्तया ) भक्ति से ( प्रणति ) नमस्कार ( विधाय ) करके पूछा (स्वामिन् ) हे स्वामी ( सर्वभृत्यहिताय च ) और समस्त भव्य जीवों के हित करने के लिए (भुवनच्चतम् ) त्रैलोक्य पूज्य ( सिद्धचक्रवतं ) सिद्ध चव्रत को ( साच्चैनम् ) और उसकी पूजा (वा) तथा ( तस्य ) उसका ( फलं ) फल ( कि ) क्या है ? (तत्) वह (सर्व) सर्व चारित्र ( त्वं ) आप ( वक्तुम् ) वर्णन करने में (अर्हसि ) समर्थ हैं
सरलार्थ - श्रेणिक नृप ने बीर प्रभु से प्रश्न किया कि हे भगवान् ! सिद्ध चक्रवत को किसने किया, यह किस प्रकार किया जाता है और इसका फल क्या होता है ? कृपाकर आप सब वन करिये क्योंकि आप सर्व कथन में समर्थ हैं यह लोक पूजित व्रत महान है और महाफल देने वाला है । आप ही इसे निरुपण करने में समर्थ हैं ।। १५६ ॥