Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
(३) वृत्ति परिसंख्यान - आहार को जाते समय श्रवग्रह विशेष नियम लेकर जाना तद्नुसार विधि मिलने पर ही आहार लेना अन्यथा उपवास करना वृत्तिपरिसंस्थान तप है ।
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(४) रस परित्यागः - छहों (दूध, दही, मीठा, घी, तेल, नमक रसों का अथवा दो चार का त्याग करना रसपरित्याग तप है ।
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(५) विविक्त - शैयासन: तप ध्यान, स्वाध्याय की सिद्धि वृद्धि के लिए एकान्त स्थान में सोना बैठना ।
(६) कायक्लेश: नाना प्रकार के आसन मुद्रा आदि का प्रयोग करना श्रात्म-शक्ति और निर्भयता को बढ़ाना कायक्लेश है । इस प्रकार ६ वाह्य तप हैं। इन दोनों प्रकार के तपों का द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव तथा निज शक्ति अनुसार धारण पालन और बर्द्धन करना उत्तम तप है ।
( ८ ) उत्तम त्यागः - त्याग का अर्थ है दान | ज्ञानदान अभयदान, औषधि और आहार दान देना । वाञ्छा रहित प्रर्थात् फल की इच्छा न रखकर दान देना उत्तम दान धर्म है ।
(e) उत्तम आकिञ्चन्यः - वाह्याभ्यन्तर सकल परिग्रह के सर्वथा त्याग उत्तम आकिञ्चन्य धर्म है ।
(१०) उत्तम ब्रह्मचर्य:- स्त्री मात्र का नवकोटि से सर्वथा त्याग करना उत्तम ब्रह्मचर्य व्रत धर्म है। इस प्रकार दश धर्मों का धारण करना यति धर्म में प्रधान है । तथा
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पात्रदानं गुणाधानं पूजनं परमेष्ठिनाम् ।
शीलं पर्वोपवासं च परोपकृति मुत्तमाम् ।। १५३ ।।
श्रन्वयार्थ - - ( पात्रदानम् ) उत्तम, मध्यम, जघन्य पात्रों को दान देना (परमेष्ठिनाम ) पञ्चपरमेष्ठियों के ( गुणाधानं ) गुणों का विस्वन करना उनकी भक्ति करना तथा ( पूजन) पूजा करना ( शीलम् ) शोलव्रत पालन ( पर्वोपवास) प्रष्टमी, चतुर्दशी श्रादि पर्वों में उपवास करना (च) और ( उत्तमाम् ) श्रेष्ठ रूप (परोपकृतिम् ) परोपकार करना यह श्रेष्ठ श्रावक धर्म है ।
सरलार्थ तीन प्रकार के पात्रों को यथा समय यथा शक्ति, यथा योग्य चतुविध दान देना, अरहत, सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय और साधु दिगम्बर मुनि इन पञ्चपरमेष्ठियों में गुणानुराग, भक्ति श्रद्धा रखना, पातित्रत धर्म व एक पत्निव्रत धारण करना शीलन्नत है। पर्व के दिनों में उपवासादि करना, दयाभाव रखना, सतत परोपकार करने में प्रवृत रहना यह श्रावक धर्म है ।