Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद]
श्रोतुमिच्छामि भो नाथ ! श्रीमतां मुखपङ्कजात् ।
अमृतास्वादने देव कस्सुधीः स्यात्पराड्.मुख ॥१६०॥ अन्वयार्थ- (भो नाथ) हे नाथ (श्रीमतां) अन्तरङ्ग-बहिरङ्ग लक्ष्मी सम्पन्न भगवन् (मुखपल जात्) आपके मुखारविन्द से (थोतुम्) सुनने को (इच्छामि) इच्छा करता हूँ। (देव) हे देव ! (अमृतास्वादने) अमृत रस का स्वाद लेने में (क:) कौन (सुधीः) बुद्धिमान (पराङमुख) विमुख (स्यात) होगा?
सरलार्श हे नाथ आप अनन्त चतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और समवशरणादि बाह्य लक्ष्मी के अधिपति हैं। मैं आपके मखरूपी वामल से सिद्धचक्रव्रत का विधि-विधानसूनना चाहता हूँ। हे प्रभो अमृतपान करने में कौन आलसी होगा। आपका साक्षात दर्शन मिला है अत: अमृत स्वरूप यह व्रत अवश्य ही मुझे मनना चाहिए।
भावार्थ-लोकोक्ति है “शुभस्य शीघ्रम्" श्रेष्ठ कार्य को शीघ्र ही अवसर मिलते ही कर लेना चाहिए । क्योंकि गया समय पुनः हाथ में नहीं आता राजा श्रेणिक क्षायिक सम्यग्दृष्टि भला क्यों समय खोता ? महावीर प्रभु को सन्निधि मिलते ही मनम्र प्रार्थना की कि हे भगवन् मैं सिद्धच व्रत विधान सुनना चाहता हूँ। यह व्रत किसने किस प्रकार किया और उसका फन्न क्या हुआ वह सर्व वृत्तान्त आप ही निरुपण करने में समर्थ हैं। क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं । यह नत सर्वजीव हितकारी है । आप कृपाकर मुझे (धेणिकराजा को) कृतार्थ करें।
इत्येवं न सुरासुरौ विलसन्मारिणक्य मौलिप्रभा । पानीय प्रविधौतपूत विकसत्पादाब्जयुग्मस्तदा । श्री मनोर, जिनेश्वरो भयहरो भव्यौनिस्तारकः ।
श्री मछरिणक, भूपति गुणवरं श्रीपालवृत्तं जगौ ॥१६१॥ अन्वयार्थ- (तदा) तब (इत्येवं) इस प्रकार प्रश्न करने पर (विलसन ) हपित होते हुए (सुरा सुरोध माणिक्य मौलिप्रभा) सुर असरों के मुकुटों में लगी हुई मणियों को प्रभा रूपी (पानीय प्रविधीत ) जल से प्रक्षालित (पूत । पवित्र (विकसत पादाब्जयुग्म:) खिलते हुए कमल युगल के समान है। चरण युगल जिनके ऐसे (भयहरो) भय को हरने बाले तथा (भव्यौध निस्तारक:) भव्य समूह को संसार समुद्र से पार करने वाले (श्रीमद्) अन्तरङ्ग बहिरङ्ग लक्ष्मी के धारी (बीर जिनेश्वरो) वीर प्रभु ने (श्रीमद्) लक्ष्मीबन्त (गुणवर) श्रेष्ठ गुणों के धारी (थेणिक भूपति) श्रेणिक महाराज को (श्री पालवृत) श्रीपाल चारित्र को (जगी) कहा ।
सरलार्थ-श्रेणिक महाराज के प्रश्न करने पर भगवान् महावीर स्वामी श्रीपाल चारित्र वर्णन करने लगे। उस समय (सुर-देव) असुर मनुष्य आदि के नृपति गण उन प्रभु के