Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
View full book text
________________
६४ ]
[ श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
I
पद्रव्यों में कालद्रव्य को कायवान नहीं कहा है क्योंकि उसमें प्रदेश प्रचय का अभाव है । अर्थात् काला रत्नों को राशि के समान आकाश के एक-एक प्रदेश पर पृथक्पृथक् अवस्थित हैं अतः उनको कायवान नहीं माना है किन्तु अस्ति रूप हैं । जितने भो द्रव्य हैं वे सभी सत् रूप होते हैं "सत् द्रव्य लक्षणं" ऐसा कहा है ।
निश्चयो जीवितः पूर्व जीवतीह पुमानयम् । जोदिष्यति देवी प्रोच्यते बुनिपुङ्गवैः ॥ १३३॥
अन्वयार्थ - ( निश्चयः ) निश्चय से ( अयम् पुमान्) यह आत्मा (पूर्वी जीवितः ) पहले जीवित था ( इह जोवति ) इस समय जी रहा है और ( जोविष्यति ) आगे जीवित रहेगा (असी सुजीवः ) वह जीव है ऐसा ( मुनिपुङ्गवैः प्रोच्यते ) मुनियों में श्रेष्ठ गणघर देवों के द्वारा कहा जाता है |
श्रर्थ - जो पहले जीता था, इस समय जीवित हैं और आगे भी जीवित रहेगा उसे गणधर देवादि द्वारा जीव कहा गया है ।
भावार्थ-व्यवहार नय से जो दश प्राणों से युक्त था, हे और आगे रहेगा बह जीव है । पाँच इन्द्रियाँ, तीन बल-मनोबल, वचनबल और कावल तथा आयु और श्वासोच्छवास ये १० प्राण कहलाते हैं । इनमें से एकेन्द्रिय जीव के १ स्पर्शन इन्द्रिय २ कायबल ३ आयु और ४ श्वाँसोच्छवास ये चार प्राण होते हैं दो इन्द्रिय के स्पर्शन और रसना ये २ इन्द्रियों कायबल वचनवल आयु एवं श्वासोच्छवास ये ६ प्राण होते हैं। इन्हीं ६ प्राणों में एक प्राण इन्द्रिय अधिक हो जाने से श्रीन्द्रिय जीवों के ७ प्राण होते हैं। इन ७ प्राणों में एक चक्षु इन्द्रिय बढ़ जाने से चतुरिन्द्रिय जीवों के प्राण होते हैं। असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय के एक क इन्द्रिय और बढ़ने से ६ प्राण होते हैं तथा मनोबल और अधिक हो जाने से संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के १० प्राण होते हैं । संसार अवस्था में ये जीन के सदा ही विद्यमान रहते हैं अतः इन्हीं के द्वारा जीव की पहिचान होती है ।
चेतना लक्षणो जीवात्सोपयोगद्वयोऽनिशम् ।
प्रोक्तस्सोऽपि द्विधा जीवस्संसारी मुक्त एव च ॥ १३४ ॥
अन्वयार्थ - (जीव ) जीव ( चेतना लक्षण: ) चेतना लक्षण वाला है ( स ) वह चेतना
( उपयोगो) उपयोग रूप है ( सोऽपि ) वह उपयोग भी ( द्वयो) दो प्रकार का है - दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग | (सोऽपि जीवः ) वह जीव भी ( अनिशम् द्विधाप्रोक्तः ) निरन्तर दो प्रकार का कहा जाता है (संसारी मुक्त एव च ) संसारी और मुक्त रूप ही ।
अर्थ- चेतना गुण से युक्त जो हो उसे जीब कहते हैं । यह चेतना त्रिकालावछिन्न रूप से जीव में पाई जाती है। उसके दो भेद हैं—दर्शनचेतना और ज्ञानचेतना । इन दोनों भेदों को उपयोग कहते हैं। इसलिये दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग से उपयोग दो प्रकार का है