Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद मूर्तिमान पुद्गलस्तेषु परेमूर्ति विजिताः ।
धर्माधर्म नभः कालास्सजीवा जिनभाषिताः ॥१४७।।
अन्वयार्थ (तेषु) उन द्रव्यों में (पुद्गलः) पृदगल द्रव्य (मूर्तिमान) मूर्तिक-रूप रस, गन्ध, शब्द से युक्त है (परे) शेष बाकी के (धर्माधर्मनभ: काल:) धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाश, काल, और (जीवाः) शुद्ध जीवद्रव्य (मूर्ति विवजिताः) मूर्तिमान से रहित अर्थात् अमूर्तिक है, ऐसा (जिनभाषिताः) जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है।
अर्थः–छ द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है और शेष पाँचों द्रव्य अमूर्तिक हैं । इस प्रकार श्री जिनेन्द्र भगवान् ने कहा है ॥१४७।।
जीव पुद्गलको प्रोक्तौ प्रकुर्वन्तौ विपरिणतिम् ।
धर्माधर्म नभः कालस्तिष्ठन्त्येव स्वभावतः ॥१४॥
अन्वयार्थ - (जीव पुद्गलको) जीव और पुद्गल ये दोनों द्रव्य (विपरिणतिम्) विपरिणमन करने वाले (प्रोक्तो) कहे गये हैं (धर्माधर्मनभः काल:) धर्म, अधर्म, आकाश, काल, ये (स्वभावतः) अपने निज स्वरूप में ही (तिष्ठन्त्येव) स्थिर रहते हैं ।
अर्थ:-जीव और पुद्गल ये दो द्रव्य पर निमित्त से विभाव रूप परिणमन करते हैं, किन्तु शेष धर्मद्रव्य, अधर्मद्रव्य, आकाशद्रव्य और कालद्रव्य अपने स्वभाव रूप में ही रहते हैं। ये विकारी नहीं होते ।।१४८।।
इत्याविक जगत्स्वामी विस्तरेण तवा, जिनः ।
भव्यानां भाषयामास प्रोच्चष्षद्रव्य संग्रहम् ॥१४॥ अन्ययार्थ-(तदा) जब (जगत्स्वामी जिन:) जगत के स्वामी जिनेन्द्रप्रभु ने (इत्यादिक) उपर्युक्त प्रकार से (विस्तरेण) विस्तार पूर्वक (षड्व्य संग्रहम् ) षड् द्रव्यों के समुह का (भव्यानां) भव्यजीवों को (प्रोच्चः) युक्ति पूर्वक स्पष्ट रूप से (भाषयामास) निरूपण किया अर्थात् कथन किया ।
__ अर्थ--उपयुक्त प्रकार से विश्व पितामह भगवान् थी जिनेन्द्र प्रभु ने षड्द्रव्यों का स्वरुप विशद रूप से वर्णन किया। भव्य जीवों का हित करने वाला यह वर्णन सुस्पष्ट और विस्तार रूप से किया गया ।
भावार्थ---भगवान् महावीर प्रभु की देशना विपुलाचल पर्वत पर हुयी । त्रैलोक्यपति भगवान् ने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म आकाश और काल इन छहों द्रव्यों का स्वरूप स्पष्ट रूप से बताया आपकी दिव्यध्वनि से समस्त भव्य जीवों ने सुना और समझा एवं धारण किया ॥१४॥