Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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| श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
प्रन्वयार्थ - ( ततः ) उसके बाद ( गौतमस्वामी प्रमुख्यान् मुनिपुङ्गवान् ) श्री मोतम स्वामी जिसमें प्रमुख थे ऐसे समस्त मुनिपुङ्गवों को ( नत्वा) नमस्कार कर ( स्तुत्वा ) स्तुतिकर (अतिभक्तिमान् ) अत्यन्त भक्ति से भरा हुद्या राजा श्रेणिक (नरकोष्ठे स्थितो) मनुष्य के कोठे बैठ
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भावार्थ - श्रेणिक महाराज उपर्युक्त प्रकार प्रगाढ़ भक्ति के साथ श्री वीर प्रभु की स्तुति कर नमस्कार कर मनुष्य के कोठे में जाकर बैठ गये । जहाँ गौतम स्वामी को प्रमुखकर ११ गणधर परमेष्ठी भी बिराजमान थे। सभी गणधर मुनि मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्ययइन चार ज्ञान के धारी होते हैं। गणधर स्वामी के अतिरिक्त अन्य भी अनेक मुनिपुङ्गव वहाँ विराजमान थे उनमें अवधिज्ञानी मुनिराज १२७६०० थे । पुर्वधारी मुनिराजो की संख्या ३६६४० यो । विपुलमती मनः पर्ययज्ञान के धारी १५४६०५ थे। विक्रया ऋद्धि के धारी २२५६०० थे। शिक्षक अर्थात् उपाध्यायमुनि २०००५५५ ये । इस तरह और भी अनेक मुनिराज वहाँ विराजमान थे । उन सबकी स्तुति वन्दना नमस्कारादि करके श्रेणिक राजा मनुष्य के कोठे में बैठ गया ।
श्री गौतम स्वामी ने आषाडा मास की गुरुपुरिंगमा को दीक्षा धारण कर श्री वीर प्रभु का शिष्यत्व स्वीकार किया था और उसी समय उत्कृष्ट विशुद्ध परिणामों के बल से उनके 'मन:पर्यय भी प्रकट हो गया था अगले दिन श्रावण कृष्णा प्रतिपदा के ब्राह्ममुहूर्त में भगवान महावीर की दिव्य ध्वनि आरम्भ हुई इस प्रकार इस दिन धर्म तीर्थ को उत्पत्ति हुई थी । तदनन्तर अन्य भी गणधर हुए जिनके नाम इस प्रकार हैं- प्रथम गणधर तो गौतम स्वामी थे ऐसा बता चुके हैं (२) अग्निभूत ( ३ ) वायुभूति ( ४ ) शुचिदत्त ( ५ ) सुधर्मा (६) मण्डिक (७) मौर्यपुत्र ( 5 ) अकम्पित ( ६ ) अचल (१०) मेदार्य ( ११ ) प्रभास ।
तदा तीर्थंकराधीश वोर श्रीमुख पंकजात्
वक्तुमिच्छां बिना चापि तात्योष्ठस्पंदवजितः ॥ १३०॥
अन्वयार्थ - ( तदा ) तव ( तीर्थंकराधीश ) तीन लोक अधिपति धर्म तीर्थ के कर्ता अन्तिम तीर्थंकर (जोर श्रीमुखपंकजात् ) महावीर भगवान के मुखारबिन्द से ( वक्तुमिच्छा बिना चापि ) बोलने की इच्छा न होने पर भी ( तात्वोष्ठस्पन्द बजितः ) तालु ओष्ठ आदि के स्पन्दन के बिना ही ( स्पष्टाक्षर कदम्बका) स्पष्टाक्षरों समूह रूप (दिव्यध्वनिसमुत्पन्ना ) दिव्यध्वनि उत्पन्न हुई जो ( नानादेशात् ) विभिन्न देशों से ( आगत- प्राणिचित्त ! आये हुए प्राणियों के चित्त को (संप्रीणन क्षमा) प्रफुल्लित प्रसन्न करने में समर्थ थी ।
- भगवान की प्रथम देशना का स्थल राजगृह नगरी का विपुलाचल पर्वत या । मिथ्यात्व और अज्ञान का भेदन करने वाली, भव्य जीवों को दुःख से मुक्त करने वाली भगवान की वाणी अमृत के समान उपादेय थी ।
दिव्यध्वनि को दिव्य विशेषण क्यों दिया ? इस विषय में ऐसा आगम में कथन