Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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[श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद
होना (५) बनवृषभ नाराच संहनन का होना (६) अत्यन्त सुन्दर शरीर होना (७) सुगंधमय शरीर होना (८) शरीर पर उत्तम लक्षणों का होना (8) अनन्तवीर्य होना (१०) हितकारी और मधुर वचनों का निकलना।
अब केवलज्ञान के १० अतिशय बताते हैं
(१) ४०० कोस तक अर्थात् १०० योजन तक सुभिक्षता का होना-दुप्काल नहीं पड़ना । (२) आकाश में गमन करना। (३) किसी जीव को बाधा न पहुँचाना । (४) कवलाहार ग्रहण न करना । (५) किसी प्रकार का उपसर्ग न होना । (६) चारों दिशाओं में चार मुख का दिखाई देना । (७) समस्त विद्याओं का ईश्वरपना होना । (८) शरीर की छाया न पड़ना । (६) नेत्रों का टिमकारा न लगना । (१०) मख केशों का न बढ़ना ।
१४ देवकृत अतिशय इस प्रकार हैं---
केवल ज्ञान होने के बाद समवशरण में विराजमान अरहन्त प्रभु की सेवा में तत्पर देवों द्वारा किये गये १४ प्रकार के अतिशय होते हैं
(१) समस्त जोवों का कल्याण करने वाली भगवान की दिव्यध्वनि का अर्धमागधी भाषा रूप होना।
(२) समवशरण में आने वाले समस्त प्राणियों का अपना जन्म से होने वाला वैर विरोध छोड़कर मंत्रो भाव से रहना।
(३) वहाँ को पृथ्वी के वृक्षों का छहों ऋतुओं में होने वाले फल फूलों पत्तों से सुशोभित होना ।
(४) बहाँ को पृथ्वी का रत्ममयी होना। । (५) पृथ्वो का दर्पण समान अत्यन्त निर्मल होना।
(६) भगवान जिस दिशा की ओर विहार करते हैं वायु का उसी दिशा की ओर बहना।
(७) वहाँ पर आने वाले समस्त जीवों को महाआनन्द का होना ।
(८) जहाँ भगवान विहार करते हैं वहाँ पर सुगंध से मिली हुई वायु के द्वारा एक योजन तक की भूमि को धूल कांटे, तण, कीट, बालू, रेतो, पत्थर आदि को हटाकर स्वच्छ कर देना।
(६) सुगन्धित गन्धोदक की वृष्टि होना। (१०) भगवान के चरणों के नीचे कमलों की रचना करना ।
भगवान तीर्थंकर परमदेव जब विहार करते हैं तब देव उन चरणकमल के नीचे सुवर्ण कमलों को रचना करते हैं। एक कमल चरणकमल के नीचे रहता है, सात आगे होते
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