Book Title: Shripal Charitra
Author(s): Nathulal Jain, Mahendrakumar Shastri
Publisher: Digambar Jain Vijaya Granth Prakashan Samiti
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श्रीपाल चरित्र प्रथम परिच्छेद ]
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होकर बड़े उत्साह से समवशरण में क्यों नहीं जाता ? अवश्य ही उनका प्रयाण सार्थक और शुभ फलप्रद था ।
गत्त्वानन्दभरेण तं गिरि विपुलाचलम् ।
समारुह्य सुधीस्तुङ्ग कैलाशं वादिचक्रभृत् ॥ १०६॥
श्रन्वयार्थ --- (आनन्दभरेणाशुगस्था) आनन्दपूर्वक शीघ्र जाकर (तं) उस ( विपुलाचलं गिरिं समाह्य) विपुलाचल पर्वत पर चढ़कर ( सुधी) वह बुद्धिमान श्रेणिक राजा ( आदिचक्र मृत् कलाशं वा ) ऐसे प्रतीत होते थे मानो कैलाश पर्वत पर प्रथम चक्रवर्ती भरत ही चढ़ा हो ।
भावार्थ — पर्वत को देखते ही राजा श्रेणिक महाराज वाहन से उतर कर नङ्ग पैर राजचिन्हों का त्यागकर उस बिपुलाचल पर्वत पर चढ़ने लगे | आचार्य श्री कहते हैं कि उस समय वे श्रेणिक महाराज ऐसे प्रतीत होते थे मानो कैलाश पर्वत पर परिजन पुरजन सहित छह खण्ड के अधिपति प्रथम चक्रवर्ती आये हुए हैं ।
समवादिसृतिं वीक्ष्य नानाध्वजशतान्विताम् ।
संतुष्टः श्रेणिको राजा सुकेकोव धनावलिम् ॥ ११०॥
अन्वयार्थ - ( तत्र ) वहाँ त्रिपुलाचल पर्वत पर ( नानाध्वजासान्विनम् ) अनेकों प्रकार की सैकड़ों ध्वजाओं से युक्त (समवादिसृति) समवशरण मण्डप को (घनावलिम् वीक्ष्य सुकेकी इव) घनचोर मेवमाला को देखकर मयूर के समान (श्रेणिको राजा ) श्रेणिक महाराज ( संतुष्टः ) सन्तोष को प्राप्त हुए।
भावार्थ- वहाँ विपुलाचल पर इन्द्र की श्राज्ञा से कुवेर द्वारा निर्मित अलंकृत प्राश्चर्यकारी सभामण्डप को श्रेणिक महाराज ने देखा । जिसमें अनेकों शिखर थे और शिखरों पर चित्र विचित्र अनुपम सुन्दर सैकड़ों ध्वजायें - पताका फहरा रही थीं हिलती हुई ध्वजायें मानों भव्य जीवों को वीर प्रभु का उपदेश सुनने के लिये बुला रही थीं। उस अद्भुत समवशरण रचना का अबलोकन कर श्रेणिक महाराज को इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष गरजती हुई मेघ घटाओं को देखकर मयूर को होता है। इस समय श्रेणिक महाराज का मन मयूर भी थिरकियाँ ले रहा था, शरीर हर्षाकुरों से व्याप्त हो गया था। वह गद्गद् कण्ठ हो उठा, पूर्व आनन्द हो रहा था उन्हें । आनन्दरस पूरित उस राजा ने तीन प्रदक्षिणा देकर सभामण्डप में प्रवेश किया ॥ ११०॥
त्रिः परीत्य ततो भक्त्या तां प्रविश्य प्रभो सभाम् । मानस्तम्भादिभिनित्यं पवित्री कृत भूतले ।। १११॥