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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय यह होना अत्यंत संभवित है। ऐसा कहनेका प्रयोजन नहीं कि सर्वत्र ऐसा ही हुआ है, परन्तु कहनेका अभिप्राय यह है कि ऐसा होना संभव है-ऐसा होना योग्य है । जहाँ पूर्ण आत्मस्वरूप है वहाँ सर्व महत्-प्रभाव-योग आश्रितरूपसे रहता है, यह निश्श्रयात्मक बात है-निस्सन्देह अंगीकार करने योग्य बात है।
उस आत्मस्वरूपसे कोई भी महान् नहीं है। जो प्रभाव-योग पूर्ण आत्मस्वरूपको भी प्राप्त न हो, इस प्रकारका इस सष्टिमें कोई प्रभाव-योग उत्पन्न हुआ नहीं, वर्तमानमें है नहीं, और आगे उत्पन्न हांगा नहीं। परन्तु इस प्रभाव-योगविषयक आत्मस्वरूपको कोई प्रवृत्ति कर्त्तव्य नहीं है, यह बात तो अवश्य है; और यदि उसे उस प्रभावयोगविषयक कोई कर्त्तव्य मालूम होता है तो वह पुरुष आत्मस्वरूपके अत्यंत अशानमें ही रहता है, ऐसा मानते हैं। कहनेका अभिप्राय यह है कि आत्मरूप महाभाग्य तीर्थकरमें सब प्रकारका प्रभाव होना योग्य है-होता है; परन्तु उसके एक अंशका भी प्रकट करना उन्हे योग्य नहीं । किसी स्वाभाविक पुण्यके प्रभावसे सुवर्ण-वृष्टि इत्यादि हो, ऐसा कहना असंभव नहीं, और वह तीर्थकरपदको बाधाकारक भी नहीं। परन्तु जो तीर्थकर हैं वे आत्मस्वरूपके सिवाय कोई अन्य प्रभाव आदि नहीं करते, और जो करते हैं वे आत्मरूप तीर्थकर कहे जाने योग्य नहीं ऐसा मानते हैं, और ऐसा ही है।'
क्षायिक समकित (३) प्रश्न:-इस कालमें क्षायिक समकित होना संभव है या नहीं।
उत्तर:-कदाचित् ऐसा मान लो कि ' इस कालमें क्षायिक समकित नहीं होता,' ऐसा जिना. गममें स्पष्ट लिखा है। अब उस जीवको विचार करना योग्य है कि क्षायिक समकितका क्या अर्थ है ? जिसके एक नवकारमंत्र जितना भी व्रत-प्रत्याख्यान नहीं होता, फिर भी वह जीव अधिकसे अधिक तीन भवम और नहीं तो उसी भवमें परमपदको प्राप्त करता है, ऐसी महान् आश्चर्य करनेवाली उस समकितकी व्याख्या है। फिर अब ऐसी वह कौनसी दशा समझनी चाहिये कि जिसे क्षायिक समकित कहा जाय ! 'यदि तीर्थंकर भगवान्की दृढ श्रद्धाक' नाम' क्षायिक समाकित मानें तो वैसी कौनसी श्रद्धा समझनी चाहिये, जिसे कि हम समझें कि यह तो निश्चयसे इस कालमें होती ही नहीं। यदि ऐसा मालूम नहीं होता कि अमुक दशा अथवा अमुक श्रद्धाको क्षायिक समकित कहा है तो फिर हम कहते हैं कि जिनागमके शब्दोंका केवल यही अर्थ हुआ कि क्षायिक समकित होता ही नहीं। अब यदि ऐसा समझो कि ये शब्द किसी दूसरे आशयसे कहे गये हैं, अथवा किसी पीछेके कालके विसर्जन दोषसे लिख दिये गये हैं, तो जिस जीवने इस विषयमें आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया हो, वह जीव कैसे दोषको प्राप्त होगा, यह सखेद करुणापूर्वक विचारना योग्य है।
हालमै जिन्हें जिनसूत्रों के नामसे कहा जाता है, उन सूत्रों में क्षायिक समकित नहीं है, ऐसा स्पष्ट नहीं लिखा है, तथा परम्परागत और दूसरे भी बहुतसे ग्रंथों में यह बात चली आती है, ऐसा हमने पड़ा है, और सुना भी है। और यह वाक्य मिथ्या है अथवा मृषा है, ऐसा हमारा अभिप्राय नहीं है। तथा यह वाक्य जिस प्रकारसे लिखा है, वह एकांत अभिप्रायसे ही लिखा है, ऐसा भी हमें नहीं लगता। कदाचित् ऐसा समझो कि वह वाक्य एकांतरूपसे ऐसा ही हो तो भी किसी भी प्रकारसे व्याकुल होना योग्य नहीं। कारण कि यदि इन सब व्याख्याओंको सत्पुरुषके आशयपूर्वक नहीं जाना तो फिर ये व्याख्यायें ही सफल नहीं है । कदाचित् समझो कि इसके स्थानमें, जिनागममें लिखा हो कि चौथे कालकी तरह पाँचवें कालमें भी बहुतसे जीवोंको मोक्ष होगा, तो इस बातका भवण करना कोई तुम्हारे और हमारे लिये कल्याण. कारी नहीं हो सकता, अथवा मोक्ष-प्रासिका कारण नहीं हो सकता। क्योंकि जिस दशाम वह मोक्ष-प्राति कही है, उस दशाकी प्राति ही इ है, उपयोगी है और कल्याणकारी है।
अन्तम शायिक समकितकी पुटिका उपसंहार करते हुए राजचंन्द्र कहते हैं-'तीर्थकरने भी ऐसा ही कहा है और वह हालमें उसके आगममें भी है, ऐसा हात है। कदाचित् यदि ऐसा कहा हुआ अर्थ
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