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कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न इसमें किसी प्रकारकी हमारी सकामता नहीं है।" इसलिये राजचन्द्र निरुपाय होकर अदीनभावसे प्रारब्धके उपर सब कुछ छोड़कर सर्वसंग-परित्याग कर उपदेश करनेके विचारको, ३ वर्षके लिये स्थगित कर देते हैं। जैनधर्मका गंभीर आलोडन
राजचन्द्रजीने पोरे ही समयमै जैन शास्त्रोंका असाधारण परिचय प्राप्त कर लिया था। उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, भगवती, सूत्रकृतांग आदि आगमप्रन्योंको तो वे सोलह बरसकी उम्रमें ही देख गये थे। तथा आगे चलकर कुन्दकुन्द, सिद्धसेन, समंतभद्र, हरिभद्र, हेमचन्द्र, यद्योविजय, बनारसीदास, आनन्दघन, देवचन्द्र आदि दिगम्बर और श्वेताम्बर सभी विद्वानों के मुख्य मुख्य अन्योंका राजचन्द्रजी गंभीर चिन्तन और मनन कर गये थे । ज्यों ज्यों राजचन्द्रजीकी स्मृति, अवधान आदिकीख्याति, धीरे धीरे लोगों में फैलने लगी, ज्यों ज्यों उनके उज्वल शानका प्रकाश गुजरात आदि प्रदेशों में फैलता गया, त्यो त्यों बहुतसे लोग प्रत्यक्ष परोक्षरूपसे उनकी ओर आकर्षित होने लगे। बहुतसे गृहस्थ और मुनियों ने उनका सत्संग किया; उनसे जैनधर्म-प्रश्नोत्तरसंबंधी पत्रव्यवहार चलाया; और आगे चलकर तो राजचन्द्रजीका बहुत कुछ समय प्रश्नोत्तरों में ही बीतने लगा । राजचन्द्रजीने जैनधर्मविषयक अनेक प्रश्नोंका जैन शास्त्रोंके आधारसे अथवा अपनी स्वतंत्र बुद्धिसे विशद स्पष्टीकरण किया है। निमलिखित महत्त्वपूर्ण प्रश्नोंका रानचन्द्रजीने जो समाधान किया है, उससे मालूम होता है कि राजचन्द्रजीने जैनधर्मका विशाल गंभीर मनन किया था, वे एक बड़े भारी महान् विचारक थे, और जैनधर्मको तर्ककी कसौटीपर कसकर उसे पुनरुज्जीवित बनानेकी उनमें अत्यंत प्रबल भावना थी। कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर
भवांतरका शान (१) प्रभा-क्या भवांतरका ज्ञान हो सकता है।
उत्तर:-भगवती भादि सिद्धांतोंमें जो किन्हीं किनी जीवोंके भवतिरका वर्णन किया है, उसमें कुछ संशय होने जैसी बात नहीं। तीर्थंकर तो भला पूर्ण आत्मस्वरूप है; परन्तु जो पुरुष केवल योग, ध्यान आदिके अभ्यासके बलसे रहते हो, उन पुरुषों के भी बहुतसे पुरुष भवांतरको जान सकते है और ऐसा होना कुछ कल्पित बात नहीं है। जिस पुरुषको आत्माका निश्रयात्मक शन है, उसे भवांतरका शान होना योग्य है-होता है । कचित् शानके तारतम्य-क्षयोपशम-भेदसे वैसा कभी नहीं भी होता, परन्तु जिसकी आत्मामे पूर्ण शुद्धता रहती है, वह पुरुष तो निश्चयसे उस शानको जानता हैभवांतरको जानता है। आत्मा नित्य है, अनुभवरूप है, वस्तु है-इन सब प्रकारोंके अत्यंतरूपसे हा होनेके लिए शास्त्रमें वे प्रसंग कहे गये हैं।
यदि किसीको भवांतरका स्पष्ट शान न होता हो तो यह यह कहनेके बराबर है कि किसीको आत्माका स्पष्ट ज्ञान भी नहीं होता; परन्तु ऐसा तो है नहीं । आत्माका स्पट शान तो होता है, और भवांतर भी स्पष्ट मालूम ोता है। अपने तथा परके भव जाननेके शानमें किसी भी प्रकारका. विसंवाद नहीं।
सुवर्णादि . (२) प्रभा-क्या तीर्थंकरको मिखाके लिए जाते समय सुवर्णवृष्टि होती है।
उत्तर:-तीर्थकरको मिक्षाके लिए जाते समय प्रत्येक स्थानपर सुवर्ण-वृधि इत्यादि हो ही होऐसा शास्त्रके कहनेका अर्थ नहीं समझना चाहिये । अथवा शास्त्री को हुए वाक्योंका यदि उस प्रकारका अर्थ शेता हो तो सापेक्ष ही है। यह वाक्य लोकभाषाका ही समझना चाहिये । से यदि किसीके पर किसी सबन पुरुषका आगमन हो तो वह कहता है कि 'भाज अमतका मेघ बरसा-' जैसे उसका यह कहना सापेक्ष है-पथार्थ है, शब्दके मूल अर्थमें यथार्थ नहीं । इसी तरह तीर्थकर आदिकी मिक्षाके विषयमें भी है। फिर भी ऐसा ही मानना योग्य है कि आत्मस्वरूपमें पूर्ण ऐसे पुरुषके प्रभावके बरसे
१३३७-३२१,३२२-२५.