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राजवन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय क्योंकि उसका विस्तार विशेषरूपसे देखने में आता है। व्यापाररूपसे कुटुंब प्रतिबंधसे, युवावस्थाप्रतिबंधसे, दयास्वरूपसे, विकारस्वरूपसे, उदयस्वरूपसे, इत्यादि कारणोंसे वह व्यवहार विस्ताररूप मालूम होता है" । ३६वें वर्ष सर्वसंग-परित्यागका निश्चय
आगे चलकर राजचन्द्रजी इस बातका निश्चय कर लेते हैं कि ' एकांत द्रव्य, एकांत क्षेत्र, एकांत काल और एकांत भावरूप संयमकी आराधना किये बिना चित्तकी शांति न होगी; तथा सर्वसंगपरित्याग किये बिना-बानाभ्यंतर निथ हुए बिना-लोगोंका कल्याण नहीं हो सकता। वे अपनेको लक्ष्य करके लिखते हैं:-"परानुग्रहरूप परम कारुण्यवृत्ति करते हुए भी प्रथम चैतन्य जिनप्रतिमा हो"। इसका तात्पर्य यह है कि एकांत स्थिरसयम, एकांत शुद्धसंयम और केवल बालभाव निरपेक्षता प्रासकर उसके द्वारा जिन चैतन्यप्रतिमारूप होकर अडोल आत्मावस्था पाकरजगत्के जीवोंके कल्याणके लिये, अर्थात् मार्गके पुनरुद्धारके लिये प्रवृत्ति करना चाहिये । वे प्रश्न करते है--"क्या वैसा काल है ? उत्तरमें कहा गया है--उसमें निर्विकल्प हो । क्या वैसा क्षेत्र है १ खोजकर। क्या वैसा पराक्रम है ? अप्रमत्त शूरवीर बन । क्या उतना आयुबल है ? क्या लिखें क्या कहें ? अंतर्मुख उपयोग करके देख । "२
राजचन्द्र अपनेको संबोधन करके लिखते हैं-" हे जीव असारभूत लगनेवाले इस व्यवसायसे अब निवृत्त हो निवृत्त !
उस व्यवसायके करनेमें चाहे जितना बलवान प्रारम्धोदय दिखाई देता हो, तो भी उससे निवृत्त हो निवृत्त !"
"हे जीव ! अब तू संग निवृत्तिरूप कालकी प्रतिज्ञा कर, प्रतिज्ञा ! __ यदि सर्वथा संग-निवृत्तिरूप प्रतिशका विशेष अवकाश देखनेमें न आवे तो एकदेश संग-निवृ त्तिरूप इस व्यवसायका त्याग कर !"
___ परन्तु त्यागकी इतनी अभिलाषा होनेपर भी, राजचन्द्र आचर्यकारक उपाधि ' में पो रहने के कारण, अपने मनोरथमें सफल नहीं होते । उनै निष्कामभावसे उपाधियोगका सहन ही करना पाता है। राजचन्द्र लिखते हैं:-"जो कुछ पूर्व निबन्धन किया गया है, उसे निवृत्त करनेके लिये-योरे कालमें भोग लेनेके. लिये, इस व्यापार नामके कामका दूसरेके लिये सेवन करते हैं।" " आत्मेच्छा यही रहती है कि संसारमें प्रारब्धानुसार चाहे जैसा शुभाशुभ उदय आवे, परन्तु उसमें प्रीति अप्रीति करनेका हमें संकल्प भी न करना चाहिये।" "चित्तके बंधनयुक्त न हो सकनेके कारण जो जीव संसारके संबंध श्री आदि रूपसे प्रास हुए हैं, उन जीवोंकी इच्छाके भी दुखानेकी इच्छा नहीं होती । अर्थात् वह भी अनुकंपासे और मा बाप आदिके उपकार आदि कारणोंसे उपाधियोगका बलवान रीतिसे वेदन करते हैं।
१४३७-४.१-२५.
२ देखा ०७०, ७७३-७२९,७३०-३१. . ३४१,४२-४०२,४०३-२५. - ४ 'आकिंचनरूपमें विचरते हुए एकांत मौनके द्वारा जिनभगवान्के समान ध्यानपूर्वक मैं तन्मयास्मकस्वरूप कब होऊँगा'। 'मेरा चित्त-मेरी चित्तवृत्तियाँ-इतनी शान्त हो जाओ कि कोई वृद्ध मृग, जिसके सिरमें खुजली आती हो, इस शरीरको जब पदार्य समझकर, अपने सिरकी खुजली मिटाने के लिये इस शरीरको रगडे'--आदि उवारोंसे मालूम होता है कि राजचन्द्रजीकी त्यागकी बहुत उत्कट अभिलाषा थी। राजचन्द्रजी अमुक समय खंभात, चरोतर, काविठा, रालज, ईडरके पहाव आदि निवृत्ति-स्थलों में भी जाकर म्यतीत करते थे। राजचन्द्र समय पाकर अपने व्यापारके प्रवृत्तिमय जीवनसे विभाति लेनेके लिये इन स्थानों में भाकर गुप्तरूपसे रहा करते थे.