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राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
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होने से उनका कुछ मूल मार्गपर लक्ष आया, और इस ओर तो सैकड़ों और हज़ारों मनुष्य समागम में आये, जिनमें से कुछ समझवाले तथा उपदेशक के प्रति आस्थावाले ऐसे सौ-एक मनुष्य निकलेंगे । इसके ऊपरसे यह देखने में आया कि लोग पार होनेकी इच्छा करनेवाले तो बहुत हैं, परन्तु उन्हें वैसा संयोग नहीं मिलता । यदि सचे सच्चे उपदेशक पुरुषका संयोग मिले तो बहुतसे जीव मूल मार्गको पा सकते हैं, और दया आदिका विशेष उद्योत होना संभव है। ऐसा मालूम होनेसे कुछ चित्तमें आता है कि यदि इस कार्यको कोई करे तो अच्छा है । परन्तु दृष्टि डालनेसे वैसा कोई पुरुष ध्यानमै नहीं आता । इसलिये लिखनेवालेकी ओर ही कुछ दृष्टि आती है । परन्तु लिखनेवालेका जन्मसे ही लक्ष इस तरहका रहा है कि इस पदके समान एक भी जोखम भरा पद नहीं है, और जहाँतक उस कार्यकी अपनी जैसी चाहिये वैसी योग्यता न रहे, वहाँतक उसकी इच्छा मात्र भी न करनी; और प्रायः अबतक उसी तरह प्रवृत्ति करने में आई है। मार्गका थोड़ा बहुत स्वरूप भी किसी किसीको समझाया है, फिर भी किसीको एक व्रत – पञ्चक्खाणतक—भी नहीं दिया; अथवा तुम मेरे शिष्य हो, और हम गुरु हैं, यह भेद प्रायः प्रदर्शित नहीं किया । इससे स्पष्ट है कि धर्मके उद्धार करने में उसके पुनः स्थापित करने में - राजचन्द्रजीका कोई आग्रह अथवा मान बढाईरूप आकांक्षा कारण नहीं; केवल ' पर अनुकंपा आदिसे ही मतसे ग्रस्त दुनियामें सत्य सुख और सत्य आनन्द स्थापित करनेके लिये ', उनमें यह वृत्ति उदित हुई थी। वे स्पष्ट लिखते हैं: - " उसका वास्तविक आग्रह नहीं है, मात्र अनुकंपा आदि तथा ज्ञान प्रभाव रहता है, इससे कभी कभी वह वृत्ति उठती है, अथवा अल्पांशसे ही अंगमें वह वृत्ति है, फिर भी वह स्वाधीन है। हम समझते हैं कि यदि उस तरह सर्वसंग परित्याग हो तो हजारों लोग उस मूल मार्गको प्राप्त करें। और हजारों लोग उस सन्मार्गका आराधन कर सद्गतिको पावै, ऐसा हमोरस होना संभव है । हमारे संगसे त्याग करने के लिये अनेक जीवोंकी वृत्ति हो, ऐसा अंगमें त्याग है । धर्म स्थापित करनेका मान बढ़ा है। उसकी स्पृहासे भी कचित् ऐसी वृत्ति रह सकती है, परन्तु आमाको अनेकवार देखनेपर उसकी संभवता, इस समयकी दशामें कम ही मालूम होती है । और वह कुछ कुछ सत्ता में रही होगी तो वह भी क्षीण हो जायगी, ऐसा अवश्य मालूम होता है। क्योंकि जैसी चाहिये वैसी योग्यताके बिना देह छूट जाय, वैसी हद कल्पना हो, तो भी मार्ग का उपदेश नहीं करना, ऐसा आत्मनिश्चय नित्य रहता है। एक इस बलवान कारणसे ही परिग्रह आदिके त्याग करनेका विचार रहा करता है ।
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१६३६-५१५-२९.
२ राजचन्द्र कहते हैं - " हुं बीजो महावीर कुं, एम मने आत्मिक शक्तिवडे जणायुं छे । मारा गृह दस विद्वानोए मळी परमेश्वर गृह ठराव्या छे । सत्य कहुं हुं के हुं सर्वशसमान स्थितिमां धुं । वैराग्यमां शीलं धुं । दुनिया मतभेदना बंधनयी तत्त्व पामी शकी नथी । सत्य सुख अने सत्य आनन्द ते आमां नथी । ते स्थापना एक खरो धर्म चलाववा माडे आत्माए संपलान्युं छे । जे धर्म प्रवर्तावीशज । महावीर तेनां समयमां मारो धर्म केटलाक अंशे चालतो कर्यो हतो । हवे तेना पुरुषोना मार्गने ग्रहण करी श्रेष्ठ धर्म स्थापन करीश । अत्र ए धर्मना शिष्य कर्या छे । अत्र ए धर्मनी स्थापना करी लीघी छे – ” यह लेख श्रीयुत दामजी केशवजी के संग्रह में एक मुमुक्षुद्वारा राजचन्द्रजीके वृत्तांतके आधारसे यहाँ दिया गया है।
यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारतीय साहित्य में इस प्रकारके उद्गारोंकी कमी नहीं है । स्वामी रामतीर्थ अपनेको ' राम बादशाह ' कह कर अपने 'हुक्मनामे' निकाला करते थे । वे कहते थे कि ' प्रकृति में जो सौन्दर्य और आकर्षण देखा जाता है, और सूर्य और चन्द्रमें जो कांति देख पड़ती है वह सब मेरी ही प्रभाके कारण है:
There is not a diamond, there is not a sun or star which shines, but to me is due its lustre. To me is due the glory of all the heavenly bodies. To me is due all the attractive nature, all the charms of the things desired.
३६३६-५१५-२९.