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शासनोबारकी तीन अमिलाषा होंगे। मनन और विचारपूर्वक जाननेवाले पुरुष तो उँगलियोंपर गिनने लायक भी न निकलेंगे । इस समय वीतरागदेवके नामसे इतने अधिक मत प्रचलित हो गये हैं कि वे केवल मतरूप ही रह गये है"।'वे लिखते हैं:-"संशोधक पुरुष बहुत कम हैं। मुक्त होनेकी अंतःकरणमें अभिलाषा रखनेवाले और पुरुषार्थ करनेवाले बहुत कम हैं। उन्हें सद्रू, सत्संग, अथवा सत्यास्त्र जैसी सामग्रीका मिलना दुर्लभ हो गया है। जहाँ कहीं पूछने जाओ, वहाँ सब अपनी अपनी ही गाते हैं। फिर सबी और ऊँठीका कोई भाव ही नहीं पूँछता । भाव पूँछनेवालेके आगे मिथ्या प्रश्नोत्तर करके वे स्वयं अपनी संसार-स्थिति बढ़ाते हैं, और दुसरेका भी संसार स्थिति बहानेका निमित्त होते हैं।
___ रही सहीमें पूरी बात यह है कि यदि कोई एक संशोधक आत्मा है भी, तो वे भी अप्रयोजनभूत पृथिवी इत्यादि विषयोंमें शंकाके कारण रुक गई हैं। उनें भी अनुभव-धर्मपर आना बहुत ही कठिन हो गया है।
इसपरसे मेरा कहनेका यह अभिप्राय नहीं है कि आजकल कोई भी जैनदर्शनका आराधक नहीं । हैं अवश्य, परन्तु बहुत ही कम, बहुत ही कम; और जो हैं भी उनमें मुक्त होनेके सिवाय दूसरी कोई भी अभिलाषा न हो, और उन्होंने वीतरागकी आशामें ही अपनी आत्मा समर्पण कर दी हो, तो ऐसे लोग तो उँगलीपर गिनने लायक ही निकलेंगे। नहीं तो दर्शनकी दशा देखकर करुणा उत्पन्न हो आती है। यदि स्थिर चित्तसे विचार करके देखोगे तो तुम्हें यह मेरा कथन सप्रमाण ही सिद्ध होगा।" शासनोद्धारकी तीव्र अभिलाषा
इसीलिये जैनशासनका उद्धार करनेकी, उसके गुप्त तत्वोंको प्रकाशित करनेकी, उसमें पड़े हुए अंतर्गच्छोको मटियामेट करनेकी राजचन्द्रजीकी तीन अभिलाषा थी । उनका अहर्निश यही मंथन चला करता था कि " जैनदर्शन दिन प्रतिदिन क्षीण होता हुआ क्यों दिखाई देता है १ वर्षमानस्वामीके पश्चात योरे ही दिनोंमें उसमें जो नाना भेद हो गये हैं, उसका क्या कारण है ? हरिभद्र आदि आचार्योंक अत्यन्त प्रयत्न करनेपर भी लोक-समुदायमें जैनमार्गका प्रचार क्यों नहीं हुआ ? अब वर्तमानमें उस मार्गकी उन्नति किस तरह और किस रास्तेसे हो सकती है। हालमें विद्यमान जैनसूत्रोंमें जैनदर्शनका स्वरूप बहुत अधूरा लिखा हुआ देखनेमें आता है, वह विरोध किस तरह दूर हो सकता है ? केवलशान, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, संकोच-विकासशील आत्मा, महाविदेह क्षेत्र आदि व्याख्यायें किस तरह प्रबल प्रमाणसे सिद्ध हो सकती हैं।" शासनोद्धारकी योग्यता
कहनेकी आवश्यकता नहीं, राजचन्द्रजी जैनशासनका उद्धार करनेके लिये अपनेको पूर्ण योग्य समझते थे। वे अपने सत्संगियोसे कहा करते थे कि 'जित पुरुषका चौथे कालमें होना दुर्लभ था, ऐसे परुषका योग इस कालमें मिला है। 'प्रमादसे जागृत होओ । पुरुषार्थरहित होकर मंदतासे क्यों प्रवृत्ति करते हो? ऐसा योग मिलना महाविकट है । महापुण्यसे ऐसा योग मिला है। इसे व्यर्थ क्यों गमाते हो? जागृत होओ।' तथा 'जैनमार्गको दृष्टांतपूर्वक उपदेश करनेमें जो परमभुत आदि तथा अंतरंग गुणोंकी आवश्यकता होती है, वे यहाँ मौजूद है। वे लिखते है:-छोटी उम्रमें मार्गका उद्धार करनेके संबंध अभिलाषा थी। उसके पचात् शान-दशाके आनेपर क्रमसे वह उपशम जैसी हो गई । परन्तु कोई कोई लोग परिचयमें आये, उन्हें कुछ विशेषता मालूम
१४-८९-१६. २ २०-१३६-२०. तुलना करोगच्छना भेद बहु नयण नीहाळतां तत्वनी बात करता न लाजे । उदरभरणादि निजकाज करता थका मोह नडिया कलिकाल राजे ॥धार.॥
आनन्दघनचौबीसी १४-३. ३६४१-५१९-२९०