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कुशल व्यापारी
मात्र भी कम महत्व होनेका कोई कारण न मिला, अथवा कभी भी परस्पर व्यवहारसंबंधी मित्रता न मालूम दी । इसका कारण यही है कि उनकी उच्च आत्मदशाकी मेरे ऊपर गहरी छाप पड़ी थी।"
राजचन्द्रजी जितने ग्यापारकुशल थे, उतनी ही उनमें व्यवहार-स्पष्टता और प्रामाणिकता भी थी। इस संबंध एक जगह अपनेको संबोधन करके वे लिखते हैं-"तू जिसके साथ व्यवहार, सम्बद्ध हुआ हो, उसके साथ अमुक प्रकारसे बर्ताव करनेका निर्णय करके उससे कह दे । यदि उसे अनुकूल आवे तो ठीक है, अन्यथा वह जिस तरह कहे उस तरहका तू बर्ताव रखना । साथ ही यह भी कह देना कि मैं आपके कार्यमै (जो मुझे सौंपा गया है उसमें) किसी तरह भी अपनी निष्ठाके द्वारा आपको हानि नहीं पहुँचाऊँगा। आप मेरे विषयमें दूसरी कोई भी शंका न करना । मुझे इस व्यवहारके विषयमें अन्य किसी भी प्रकारका भाव नहीं है । और मैं आपके साथ वैसा बर्ताव रखना नहीं चाहता। इतना ही नहीं, परन्तु कुछ यदि मन वचन और कायासे विपरीत आचरण हुआ हो तो उसके लिये मैं पश्चात्ताप करूँगा। वैसा न करनेके लिये मैं पहिलेसे ही बहुत सावधानी रक्तूंगा। आपका सापा हुआ काम करते हुए मैं निरभिमानी होकर रहूँगा । मेरी भूलके लिये यदि आप मुझे उपालंभ देंगे, तो मैं उसे सहन करूँगा । जहाँतक मेरा बस चलेगा, वहाँतक मैं स्वप्नमें भी आपके साथ द्वेष अथवा आपके विषयमें किसी भी तरहकी अयोग्य कल्पना नहीं करूँगा । यदि आपको किसी तरहकी शंका हो तो आप मुझे कहें, मैं आपका उपकार मानूंगा, और उसका सचा खुलासा करूँगा । यदि खुलासा न होगा तो चुप रहूँगा, परन्तु असत्य न बोलूंगा । केवल आपसे इतना ही चाहता हूँ कि किसी भी प्रकारसे आप मेरे निमित्तसे अशुभ योगमें प्रवृत्ति न करें । मुझे केवल अपनी निवृत्तिश्रेणीमै प्रवृत्ति करने दें, और इस कारण किसी प्रकारसे अपने अंतःकरणको छोटा न करें, और यदि छोटा करनेकी आपकी इच्छा ही हो तो मुझे अवश्य ही पहिलेसे कह दें । उस श्रेणीको निमानेकी मेरी इच्छा है, इसलिये वैसा करनेके लिये जो कुछ करना होगा वह मैं कर लूँगा । जहाँतक बनेगा वहाँतक मैं आपको कभी कष्ट नहीं पहुँचाऊँगा, और अन्तमें यदि वह निवृत्तिश्रेणी भी आपको अप्रिय होगी तो जैसे बनेगा वैसे सावधानीसे, आपके पाससे आपको किसी भी तरहकी हानि पहुँचाये बिना, यथाशक्ति लाभ पहुँचाकर, और इसके बाद भी हमेशाके लिये ऐसी इच्छा रखता हुआ-मैं चल दूंगा।" इससे राजचन्द्रजीके न्यवहार • विषयक उप विचारोंकी कुछ झाँकी मिल सकती है। व्यापारमें अनासक्ति
राजचन्द्र यद्यपि बहुत मनोयोगपूर्वक व्यापार करते थे-वे एक अत्यन्त निष्णात कुशल व्यापारी थे, परन्तु वे व्यापारमें आसक्त कभी नहीं हुए। वे तो इस सब उपाधियोग को 'निष्कामभावसे-ईश्वरार्पितमावसे' ही सेवन करते थे । आत्मचिन्तन तो उनके अंतरमें सदा जाज्वल्यमान ही रहता था। तथा आगे चलकर तो राजचन्द्रजीका यह आत्मचिंतन इतना प्रबल हो उठता है कि उने 'संसारमै साथीरूपसे रहना
और कर्तालपसे भासमान होना, यह दुधारी तलवारपर चलनेके समान' मालूम होने लगता है, और राजचन्द्र इस उपाधियोगका अत्यन्त कठिनतासे वेदन कर पाते है। निर्ग्रन्थशासनकी उत्कृष्टता
. इस बीच राजचन्द्रजीका जैनधर्मकी ओर. आकर्षण उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । अनेक जैनशास्त्रोंका अवलोकन-चिन्तन करनेके बाद उनको अनुभव हुआ कि वीतरागताका जैसा उत्कृष्ट प्रतिपादन निषशासनमें किया गया है, वैसा किसी दूसरे धर्ममें नहीं किया । वे लिखते हैं-" जैनदर्शनके एक एक पवित्र सिद्धान्त ऐसे हैं कि उनके उपर विचार करनेमें आयु पूर्ण हो जाय तो भी पार न मिले । अन्य सब धर्ममतोंके विचार जिन-प्रणीत वचनामृत-सिंधुके आगे एक बिन्दुके समान भी नहीं। - १ श्रीयुत माणेकलाल घेलामाई सवेरीका राजचन्द्र-जयन्तीपर पा गया निबंध-राजजयन्ति स्यास्यानो सन् १९१३ पृ. २५.
२१००-१९३-२३ तथा व्यवहारमादि'के ऊपर देखो २७-१४१-१९. . :: ... .