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श्रीसंबंधी विचार इतना ही नहीं, आत्मज्ञानकी उस दशाको प्राप्त राजचन्द्र अपनी बीसे कितनी समानता और प्रेमका बर्ताव रखते थे, यह उनके निम्न पत्रसे मालूम होता है । यह पत्र राजचन्द्रजीने अपनी नीको लक्ष्य करके लिखा है:
__ "हे परिचयी ! तुम्हें मैं अनुरोध करता हूँ कि तुम अपने आपमें योग्य होनेकी इच्छा उत्पन्न करो। मैं उस इच्छाको पूर्ण करनेमें सहायक होऊँगा।
तुम मेरे अनुयायी हो, और उसमें जन्मांतरके योगसे मुझे प्रधानपद मिला है, इस कारण तुमने मेरी आज्ञाका अवलंबन करके आचरण करना उचित माना है।
और मैं भी तुम्हारे साथ उचितरूपसे ही व्यवहार करनेकी इच्छा करता हूँ, किसी दूसरे प्रकारसे नहीं।
यदि तुम पहिले जीवनस्थितिको पूर्ण करो, तो धर्मके लिये ही मेरी इच्छा करो। ऐसा करना मैं उचित समझता हूँ और यदि मैं करूँ तो धर्मपात्रके रूपमै मेरा स्मरण रहे, ऐसा होना चाहिये ।
हम तुम दोनों ही धर्ममूर्ति होनेका प्रयत्न करें । बड़े हर्षसे प्रयत्न करें । तुम्हारी गतिकी अपेक्षा मेरी गति श्रेष्ठ होगी, ऐसा अनुमान कर लिया है-"मतिमै"।
मैं तुम्हें उसका लाभ देना चाहता हूँ, क्योंकि तुम बहुत ही निकटके संबंधी हो।
यदि तुम उस लाभको उठानेकी इच्छा करते हो तो दूसरी कलममें कहे अनुसार तुम जरूर करोगे, ऐसी मुझे आशा है। - तुम स्वच्छताको बहुत अधिक चाहना, वीतराग भक्तिको बहुत ही अधिक चाहना । मेरी भक्तिको मामूली तौरसे चाहना । तुम जिस समय मेरी संगतिमें रहो, उस समय जिस तरह सब प्रकारसे मुझे आनन्द हो उस तरहसे रहना।
विद्याभ्यासी होना। मुझसे विद्यायुक्त विनोदपूर्ण संभाषण करना। मैं तुम्हें योग्य उपदेश दूंगा । तुम उससे रूपसंपन्न, गुणसंपन्न और ऋद्धि तथा बुद्धिसंपन्न होगे। बादमें इस दशाको देखकर मैं परम प्रसन होऊँगा।" गृहस्थाश्रमसे विरक्त होनेकी सूझ
गृहस्थकी उपाधिमे रहते हुए भी राजचन्द्रजी स्वलक्ष्यकी ओर बढ़ते ही चले जाते हैं। तथा आवर्यकी बात तो यह है कि अभी उनके विवाहको हुए तीन-चार बरस भी नहीं हो पाये, और उनका वैराग्य इतना तीन हो उठता है कि उनै 'गृहस्थाश्रमसे अधिकतर विरक्त होनेकी ही बात सूक्षा करती है। उनका डब निश्चय हो जाता है कि गृहस्थाश्रमीसे सम्पूर्ण धर्म-साधन नहीं बन सकताउसके लिये तो सर्वसंग-परित्याग ही आवश्यक है।' तथा ' सहजसमाधिकी प्राति केवल निर्जन स्थान अथवा योग-धारणसे नही हो सकती. वह सर्वसंग-परित्याग करनेसेही संभव है।'राजचन्द्रजीकी यह भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि उन 'विदेही दशाके बिना, यथायोग्य जीवन्मुक्तदशाके बिना-यथायोग्य निर्धन्यं दशाके बिना, एक क्षणभरका भी जीवन देखना कटिन हो जाता है; और उनके समक्ष भविष्यकी विडम्बना आ खड़ी होती है। इस समय जो राजचन्द्रजीके मनमें इस सम्बन्ध मंथन चला है, उसे उनके शब्दोंमें मुनिये:-" रात दिन एक परमार्य विषयका ही मनन रहा करता है। आहार भी यही है, निद्रा भी यही है, शयन भी यही है, स्वम भी यही है, भय भी यही है, भोग भी यही है, परिग्रह भी यही है, चलना भी यही है, और आसन भी यही है। अधिक क्या कहा जाय।हाब, माँस और उसकी मबाको एक इसी रंगी रंग दिया है। रोम रोममें भी मानों इसीका विचार रहा करता है, और उसके कारण न कुछ देखना अच्छा लगता है, न कुछ उपना अच्छा लगता है, न कुछ सुनना अच्छा लगता है, न कुछ चखना अच्छा लगता है, न कुछ छूना अच्छा लगता है, न छ बोलना अच्छा लगता है, न मौन रहना अच्छा लगता है, न बैठना अच्छा लगता है, न उठना अच्छा
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