________________
राजचन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय
अनुभव हुआ; और यह अनुभव ऐसा था जो प्रायः न शास्त्रोंमें ही लिखा था, और न जड़वादियोंकी कल्पना ही था । यह अनुभव क्रमसे बढ़ा, और बढ़कर अब एक 'तू ही तू ही ' की जाप करता है ।
अब यहाँ समाधान हो जायगा । यह बात अवश्य आपकी समझमें आ जायगी कि मुझे भूतकालमें न भोगे हुए अथवा भविष्यकालीन भय आदिके दुःखमेंसे एक भी दुःख नहीं है । स्त्री सिवाय कोई दूसरा पदार्थ खास करके मुझे नहीं रोक सकता । दूसरा ऐसा कोई भी संसारी पदार्थ नहीं है, जिसमें मेरी प्रीति हो, और मैं किसी भी भयसे अधिक मात्रामें घिरा हुआ भी नहीं हूँ । स्त्री के संबंध में मेरी अभिलाषा कुछ और है, और आचरण कुछ और है । यद्यपि एक तरहसे कुछ कालतक उसका सेवन करना मान्य रक्खा है, फिर भी मेरी तो वहाँ सामान्य प्रीति- अप्रीति है । परन्तु दुःख यही है कि अभिलाषा न होनेपर भी पूर्वकर्म मुझे क्यों घेरे हुए हैं ? इतनेसे ही इसका अन्त नहीं होता । परन्तु इसके कारण अच्छे न लगनेवाले पदार्थोंको देखना, सूँघना और स्पर्श करना पड़ता है, और इसी कारणसे प्रायः उपाधिमें रहना पड़ता है । महारंभ, महापरिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ अथवा ऐसी ही अन्य बातें जगतमें कुछ भी नहीं, इस प्रकारका इनको भुला देने का ध्यान करने से परमानंद रहता है । उसको उपरोक्त कारणोंसे देखना पड़ता है । यही महाखेदकी बात है। अंतरंगचर्या भी कहीं प्रगट नहीं की जा सकती, ऐसे पात्रोंकी मुझे दुर्लभता हो गई है। यही बस मेरा दुःखीपना कहा जा सकता है ।"
स्त्रीसंबंधी विचार
एक दूसरी बात यहाँ खास ध्यान आकर्षित करनेवाली यह है कि राजचन्द्र गृहस्थाश्रमसे उदासीन रहते हुए भी भारत के बहुसंख्यक ऋषि मुनियोंकी तरह स्त्रीको हेय अथवा तुच्छ नहीं समझते । परन्तु 'गृहस्थाश्रमको विवेकी और कुटुम्बको स्वर्ग बनाने 'की भावना रखते हुए स्त्रीके प्रति पर्याप्त सम्मान प्रकट करते हैं, और उसे सहधर्मिणी समझकर सदाचारी- ज्ञान देनेका अनुरोध करते हैं । वे लिखते हैं-" स्त्रीमें कोई दोष नहीं । परन्तु दोष तो अपनी आत्मामें है ।... स्त्रीको सदाचारी - ज्ञान देना चाहिये । उसे एक सत्संगी समझना चाहिये । उसके साथ धर्म- बहनका संबंध रखना चाहिये | अंतःकरणसे किसी भी तरह मा बइनमें और उसमें अन्तर न रखना चाहिये । उसके शारीरिक भागका किसी भी तरह मोहनीय कर्मके वशसे उपभोग किया जाता है । उसमें योगकी ही स्मृति रखनी चाहिये । ' यह है तो मैं कैसे सुखका अनुभव करता हूँ ?' यह भूल जाना चाहिये ( तात्पर्य यह है कि यह मानना असत् है ) । जैसे दो मित्र परस्पर साधारण चीजका उपभोग करते
वैसे ही उस वस्तु (पत्नी) का सखेद उपभोग कर पूर्वबंधनसे छूट जाना चाहिये । उसके साथ जैसे बने वैसे निर्विकारी बात करना चाहिये — विकार चेष्टाका कायासे अनुभव करते हुए भी उपयोग निशानपर ही रखना चाहिये । उससे कोई संतानोत्पत्ति हो तो वह एक साधारण वस्तु है—यह समझकर ममस्व न करना चाहिये ।
,, ३
१५५-१६३ - २१.
२ स्त्रियोंके लिये राजचन्द्रजीने स्त्रीनीतिबोध नामक स्वतंत्र पद्यग्रंथ भी लिखा है, जिसमें उन्होंने स्त्रीशिक्षा आदि विषयोंका प्रतिपादन किया है— देखो आगे.
३ गुजराती मूल पत्र इस तरह है:-" स्त्रीने सदाचारी ज्ञान आपहुं । एक सत्संगी तेने गणबी । तेनाथी धर्मबहेननो संबंध राखवो। अंतःकरणथी कोईपण प्रकारे मा बहेन अने तेमां अंतर न राखवो । तेना शारीरिक भागनो कोईपण रीते मोहकर्मने वशे उपभोग लवाय छे, त्यां योगनीज स्मृति राखी 'आ छे तो हुं केषु सुख अनभवं धुं' ए भुली जवं ( तात्पर्य ते मानबुं असत् छे ) । मित्र मित्र साधारण चीजनो परस्पर उपयोग लईने छीए, तेम ते वस्तु ( ते पत्नी ) नो सखेद उपभोग लई पूर्वबन्धनथी छूटी जयं । तेनाथी जैम बने तेम निर्विकारी बात करवी विकारचेष्टानो कायाए अनुभव करतां पण उपयोग निशानपर ज राखवा । तेनाथी कई संतानोत्पत्ति थाय तो ते एक साधारण वस्तु के एम समजी ममत्व न कर " - यह पत्र प्रस्तुत ग्रंथके ५१ वे पत्रका ही एक अंश है। ' श्रीमद् राजचन्द्र के अबतक प्रकाशित किसी भी संस्करणमें यह अंश नहीं दिया गया । उक्त पत्रका यह अंश मुझे श्रयुित दामजी केशवजी की कृपासे प्राप्त हुआ है, इसके लिये लेखक उनका बहुत आभारी है.
"