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राजवन्द्र और उनका संक्षिप्त परिचय प्रधान ही होती थी' । 'अमूल्यतत्वविचार' नामक काव्यमै राजचन्द्रजीने समस्त तस्वशानका रहस्य निम्न पद्यमें कितनी सुन्दरतासे अभिव्यक्त किया है:
लक्ष्मी अने अधिकार वधतां शुं वध्यु ते तो कहो ? शुं कुटुंब के परिवारथी वधवापणुं ए नय ग्रहो। वधवापणुं संसारर्नु नरदेहने हारी जवो । एनो विचार नहीं अहो हो ! एक पळ तमने हवो॥
-अर्थात् यदि तुम्हारी लक्ष्मी और सत्ता बढ़ गई, तो कहो तो सही कि तुम्हारा बढ़ ही क्या गया क्या कुटुम्ब और परिवारके बढ़नेसे तुम अपनी बढ़ती मानते हो ? हर्गिज़ ऐसा मत मानो, क्योंकि संसारका बढ़ना मानो मनुष्यदेहको हार जाना है । अहो ! इसका तुमको एक पलभर भी विचार नहीं होता! निस्पृहता
इतना सब होनेपर भी राजचन्द्रजीको मान, लौकिक बबाई आदि प्राप्त करनेकी योगी भी महत्त्वाकांक्षा न थी। यदि वे चाहते तो अवधान, ज्योतिष आदिके द्वारा अवश्य ही धन और यशके यथेच्छ भोगी हो सकते थे, अपनी प्रतिभासे ज़रूर " एक प्रतिभाशाली जज अथवा वाइसराय बन सकते थे;" पर इस ओर उनका किंचिन्मात्र भी लक्ष्य न था । इन बातोंको आत्मैश्वर्य के सामने वे 'अति तुन्छ ' समझते थे। वे तो 'चाहे समस्त जगत् सोनेका क्यों न हो जाय, उसे तुणवत् ही मानते थे।' सिद्धियोग आदिसे निज अथवा परसंबंधी सांसारिक साधन न करनेकी उन्होंने प्रतिज्ञा ले रक्खी थी। उनका दृढ निश्चय था कि 'जो कोई अपनी जितनी पौद्गलिक बड़ाई चाहता है, उसकी उतनी ही अधोगति होती है । गृहस्थाश्रममें प्रवेश
राजचन्द्रजीने संवत् १९४४ माघ सुदी १२ को उन्नीस वर्षकी अवस्थामें गांधीजीके परममित्र स्वर्गीय रेवाशंकर जगजीवनदास मेहताके बड़े भाई पोपटलालकी पुत्री झबकबाईके साथ विवाह किया। दुर्भाग्यसे राजचन्द्रजीके विवाहविषयक कुछ विशेष विगत नहीं मालूम होती । केवल इतना ही ज्ञात होता है कि राजचन्द्र कन्यापक्षवालोंके 'आग्रहसे उनके प्रति 'ममत्वभाव ' होनेके कारण 'सब कुछ पड़ा छोड़कर ' पौषकी १३ या १४ के दिन 'त्वरा 'से बम्बईसे पाणिग्रहण करनेके लिये रवाना होते हैं । तथा इसी पत्रमें राजचन्द्र अपने विवाहमें पुरानी रूढियोंका अनुकरण न करनेके लिये बलपूर्वक भार देते हुए पूछते हैं-" क्या उनके हृदयमें ऐसी योजना है कि वे शुभ प्रसंगमें सद्विवेकी और रूहीसे प्रतिकूल रह सकते हैं, जिससे परस्पर कुटुम्बरूपसे स्नेह उत्पन्न हो
१ कविताके विषयमें राजचन्द्रजीने लिखा है:-कविताका कविताके लिये आराधन करना योग्य नहीं-संसारके लिये आराधन करना योग्य नहीं। यदि उसका प्रयोजन भगवान्के भजनके लियेआत्मकल्याणके लिये हो तो जीवको उस गुणकी क्षयोपशमताका फल मिलता है-३९६-३६३-२७.
२४-६७-१६. ३ अहमदाबादमें राजचन्द्र-जयंती के अवसरपर गांधीजीके उद्गार.
४ वे लिखते हैं:-जबसे यथार्थ बोधकी उत्पत्ति हुई है तभीसे किसी भी प्रकारके सिद्धियोगसे निजसंबंधी अथवा परसंबंधी सांसारिक साधन न करनेकी प्रतिज्ञा ले रक्खी है, और यह याद नहीं पता कि इस प्रतिशामें अबतक एक पलभरके लिये भी मंदता आई हो-२७०-२८०-२५.
५ स्वामी रामतीर्थने अपनी निस्पृहताका निम शब्दोंमें वर्णन किया है:
Away ye thoughts, ye desires which concern the transiont, evanescent fame or riches of this world, Whatever be the state of this body, it concerns Me not-अर्थात् ए अनित्य और क्षणभंगुर कीर्ति और धनसंबंधी सांसारिक इच्छाओ ! दूर होभो । इस शरीरकी कैसी भी दशा क्यों न हो, उनका मेरेसे कोई संबंध नहीं.